कविता-कानन
मैं सोचता बहुत हूँ
मैं सोचता बहुत हूँ
यहाँ तक कि सोचते-सोचते भी बहुत सोचता हूँ
जैसे दरवाज़ा सोचता हूँ
जिससे निकल भागूं
अबोध
बाहर से कुंडी लगा कर
अंदर बंद करते हुए आत्मबोध
रास्ते सोचता हूँ लंबे जाम से
अवरुद्ध
द्रुत गति से
दौड़ते हुए ठहर जाऊँ
सोचते हुए
जाना कहाँ है! और कितना!
दीवार सोचता हूँ
टिका कर रख सकूँ पीठ
उम्र भर
अपलक देखते हुए छत
टिकी रहे बग़ैर हिले
काँपती हुई साँसों पर
तुम्हें सोचता हूँ
अनवरत अनुपस्थिति
खलती है
उपस्थिति में
शब्द जोड़ घटा कर
बाँधता हूँ बाँध
थामे रख सके
तेज़ बहाव
तटबंधों को
कई बार कुछ नहीं सोचता
और तभी सोचता हूँ
सबसे अधिक
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मैं रह गया बहुत पीछे
मैं ही दस पाँच पर पहुँचा
गाड़ी तो राइट टाइम थी
दस तीन
मै ही अपने लिए रास्ते चुनता रह गया
यात्री तो एक-दूसरे की राह पकड़
निकल लिये थे
मैं ही चुकाता रहा
अधखिले बचपन का उधार
लोग कब के वरिष्ठों में शामिल हो चुके थे
मैं ही कर रहा था
अपनी बारी की प्रतीक्षा
लोग तो परायी और बासी
मुस्कानों के साथ भी तृप्त थे
मैं ही प्रार्थी था
मुक्ति की कामना का
लोग तो हमेशा से मुक्त ही थे
मैं ही पहुँचना चाहता था तुम तक
सम्पूर्णता के साथ
लोग तो अपूर्णता में ही तुम्हें घेरे हुए थे
इस प्रकार
दस पाँच और दस तीन यानी मात्र दो मिनट लेट
मैं रह गया बहुत पीछे
प्रेम करते हुए
और बाक़ी सब
तुम तक पहुँचना चाहते थे
प्रेम करने के लिए
– कृष्ण सुकुमार