कविता-कानन
मेरे मन की बात
स्कूल में मन नहीं लगता माँ
सभी चिढ़ाते हैं भोंदू कह कर
कहते हैं यह पिद्दी-सा लड़का
हमारा दोस्त क्या बनेगा!
मैं अकेला बैठता हूँ
कोने वाली बेंच पर
उस समय कक्षा में खूब
ठहाके लगते हैं जब
मैं अटक-अटक कर पढ़ता हूँ।
टीचर जी झुँझला कर कहती हैं
बैठ जा, तुझे पढ़ना ही नहीं आता
मैं उनसे कह नहीं पाता
वही सीखने तो आया हूँ
आप सिखाओ, मैं सीखूंगा।
खेल के मैदान में
बस मेरी पूछ होती है
क्योंकि दोस्तों के शॉट मारने पर
मैदान के बाहर से दौड़-दौड़ कर
बॉल लाने वाला मैं ही होता हूँ
मगर जब मैं शॉट मारना चाहता हूँ
तो लड़के झिड़क कर बॉल छीन लेते हैं
“भाग, तू क्या मारेगा, ला इधर।”
मैं डर जाता हूँ।
मैं सबके लिए बेकार हूँ
तू मुझे पर बहुत अच्छी लगती है माँ
मुझे स्कूल से आते देख, एक तू ही तो है
जो हर रोज़ ख़ुशी से कह उठती है
“मेरा राजा बेटा आ गया।”
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जादू की छड़ी
लम्बी, काली, ठिठुरन वाली रातें
बीत जातीं, जैसे कल की हो बातें
सूरज की गर्मी फिर सताती है
मेघों की बरबस याद आती है
उत्सुक हो माँ से पूछता हूँ
यह जादू की छड़ी कौन चलाता है?
बदल जाते हैं कैसे मौसम प्यारे
दिन को सूरज और रात को तारे
भरता है फूलों में रंग कौन
पंछी को गाना सिखलाता कौन?
माँ बतलाती, ईश्वर की लीला गूढ़
मैं अज्ञानी, ठहरा फिर भी मूढ़
जिद करता, ईश्वर मुझे दिखलाओ
चाँद वहाँ क्यों, मेरे पास लाओ
नहीं होता कोई जवाब जब
थपकी दे माँ सुला देती हैं तब
– डॉ. कविता विकास