कविता-कानन
मेरे धड़ के ऊपर चेहरों का एक विशाल जंगल है
लोग कहते हैं
मेरे दो चेहरे हैं
मैं उन्हें निराश करूंगा
मेरे धड़ के ऊपर चेहरों का एक विशाल जंगल है;
वो केवल दो भाषाएँ जानते हैं
अपनी सीमाओं के अनुसार मुझे मापते हैं
आत्म-वध के आविष्कार से अनभिज्ञ हूँ मैं
अस्तित्व के अंतिम-संस्कार करने की कला से अनजान
मुझे अपने सारे चेहरे प्रिय हैं
वो मेरे भीतर की ज़मीन से उगे हैं;
कभी उन्हें जहरीली हवा आबो-हवा मिली
कभी ख़ूनी बारिश का मानसून
कभी कोई गिद्ध, हड्डियों की खाद बिछा गया
कभी किसी जंगली फूल के बीज भी
इन चेहरों को अपने रंग दे गए
वो मेरे भीतर छिपी छिछली नदी
और खूंखार भेड़ियों की मानुष प्रतिकृति हैं
लोग मुझे अपनी सीमाओं के अनुसार पहचानते हैं
वो मुझे सिर्फ दो-मुँहा इंसान मानते हैं
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बस एक पेड़ की तरह था
वो बस एक पेड़ की तरह था
ऊँचे क़द का
ज़मीन से आसमान तक
तना ही तना
एकदम चिकना, रंगहीन, पारदर्शी, शाखाविहीन
सिर्फ शीर्ष था बहुत घना
काला अभेद
इतना जितना मानसून से घिरा काला द्वीप
बारिश की सारी संभावनाओं से रीता
अभिशप्त जैसे सिर्फ उड़ने के लिए
हल्की, काली, गन्दी हवाओं में;
वो मुझे हर जगह मिला
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हर रोज़ सूरज कुछ कम चमकता है अब
स्वप्नों को ख़ाली नाव में लाद देते हैं
फिर मछुआरे गाँव की ओर चल देते हैं
रोज़ सोने से पहले
रोज़ सोने से पहले
माली फूलों की सारी खुशबू
हवा में आवारा छोड़ देता है
उसे रात में सिर्फ नींद की ज़रुरत होती है
बिस्तर पर बिछी चादर की नाक नहीं है
वो पसीने की गंध और कपास की बू में
अंतर करना नहीं जानती
एक संथाल
एक मुर्दा नगाड़े को
अजायबघर की चौखट पर
अनाथ छोड़ कर चला गया है
इस बात से बेख़बर
उस मुर्दे को शीशे के आलीशान ताबूत में
दफ़न कर दिया जाएगा;
उसके पास एक जिंदा ज़िन्दगी है
पहाड़ियों के बाड़े के भीतर
जहाँ काली सड़कें आज भी
घुसने के रास्ते नहीं जानतीं
नदियों में ज़रूर वहाँ पहुँचने के सुराग़ बहते हैं
अजनबी चिड़ियाँ, अजनबी पेड़ों से
अजनबी भाषा में बात करती हैं वहाँ
मुर्दा चीज़ों को सहेजने का वक़्त नहीं उनके पास
उन्हें फ़िक्र है
उनके जीवन में भी
कहीं मुर्दा सभ्यताएँ पसर न जाएँ
रोज़ सोने से पहले
वो अपने स्वप्नों का एक टुकड़ा
पहाड़ियों से नीचे बिखेर देते है
हर रोज़ सूरज कुछ कम चमकता है अब
– डॉ. नरेन्द्र कुमार आर्य