कविताएँ
मुट्ठियाँ
बंद मुट्ठी के बीचों-बीच
एकत्र किये स्मृतियों के चिह्न
कितने सुन्दर जान पड़ रहे हैं
रात की चादर की स्याह
रंग में डूबा हर एक अक्षर
उन स्मृतियों का
निकल रहा है
मुट्ठी की ढीली पकड़ से
मैं मुट्ठियों को बंद करती
खुले बालों के साथ
उन स्मृतियों को समेट रही हूँ
वहीं दूर से आती फीकी चाँदनी
धीरे-धीरे तेज होकर
स्मृतियों को दैदीप्यमान कर
आज्ञा दे रही हैं
खुले वातावरण में विचरो!
मुट्ठियों की कैद से बाहर
और ऐलान कर दो
तुम दीप्ति हो, प्रकाशमय हो
बस यूँ ही धीरे-धीरे
मेरी मुट्ठियाँ खुल गयीं
और आजाद हो गयीं स्मृतियाँ
सदा के लिये।
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कविता-
बादलों का अट्टहास
वहाँ दूर आसमान में
और मूसलाधार बारिश
उस पर तुम्हारा मुझसे मिलना
मन को पुलकित कर रहा है
मैं तुम्हारी दी
लाल बनारसी साड़ी में
प्रेम पहन रही हूँ
कोमल, मखमली
तुम्हारी गूँजती आवाज-सा प्रेम
बाँधा है पैरों में
जिसकी आवाज़
तुम्हारी आवाज-सी मधुर है
मैं चल रही हूँ प्रेम में
तुमसे मिलने को
अब ये बारिश भी
मुझे रोक ना पाएगी।
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प्रेम अमर हो जायेगा
जब मैं प्रेम लिखूंगी
अपने हाथों से,
सुई में धागा पिरो
कपड़े का एक-एक रेशा सीऊँगी
तुम्हारे लिये
मजबूती से कपड़े का
एक-एक रेशा जोडूँगी
और जब उसे पहनने को बढ़ेंगे
तुम्हारे हाथ
तब उस पल
उस अहसास से
मेरा प्रेम अमर हो जायेगा
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हे पार्थ!
मैं सिंहासन पर बैठा
अपने धर्म और कर्म से
अंधा मनुष्य,
मैं धृतराष्ट्र
देखता रहा, सुनता रहा
और द्रोपदी के चीरहरण में
सभ्यता, संस्कृति
तार-तार हुई,
धर्म के सारे अध्याय बंद हुए
तब मैं बोला धर्म के विरुद्ध
जब मैं अंधा था
पर आज
आँखें होते हुए भी नहीं देख पाता
आज सिंहासन पर बैठा
मैं मौन हूँ
उस सिंहासन से बोलने के पश्चात
हे पार्थ!
सदियों से आज तक
मैं मौन हूँ।
– दीप्ति शर्मा