कविताएँ
मिलना तो मेरा तय ही है, तुमसे…..
मिलना तो मेरा तय ही है, तुमसे
इस बार नहीं, तो न सही
अगले जन्म में, फिर लौटकर मैं आऊँगी
पसर जाऊंगी, बिन बुलाए ही
सर्द से उस मौसम में
तेरे आँगन की धूप बनकर
या बरस जाऊंगी कभी
बारिश के चमकीले मोतियों में ढलकर
हो सका तो वृक्ष ही बन जाऊं, कभी
तेरे उस पसंदीदा गुलमोहर का
जिसे रोज ही देखने का मोह
तब भी न छोड़ पाओगे तुम
बैठोगे कुछ पल तो साथ मेरे
यूँ कहने को, बैरी दुनिया के लिए
बस वहाँ सुस्ताओगे तुम
क्यूँ न बनूँ मैं ‘सूरजमुखी’
जो खिल जाए, रोज ही तुम्हें देखकर
या कि बन छुईमुई, लजा के कभी
खुद ही में सिमट जाऊंगी
ओढ़ा दूंगी आवरण, तेरे दुःखों को
बादलों-सी छाया बन
और नदिया-सी बह, तेरे आँसुओं को
खुद में ही समा ले जाऊंगी
भर दूँगी हर रंग तेरे जीवन में
सदियों के लिए
चाहत की गर्मी से अब
हर गम तेरा पिघलाऊंगी
ए मीत मेरे, ये प्रीत तेरी
सदियों से है, सदियों के लिए
यूँ अभी जाना तय है मेरा,
बस साथ हूँ, कुछ पल के लिए
है ग़म तो बस यही, कि ये दम
तेरे पहलू में ही निकले, तो बेहतर होता
न होता कुछ भी पास हमारे
बस इक पल को ही सही
पर साथ ये मुक़द्दर होता
न करना तू अफ़सोस, इस जमाने का
इसका तो काम ही है, आज़माने का
पर वादा है मेरा, अब भी तुझसे
बन हर रंग तेरे जीवन का
इंद्रधनुष-सी तेरे आसमान पर छा जाऊंगी
मिलना तो मेरा तय ही है, तुमसे, और तब….
तेरे कहने से भी, वापिस नहीं फिर जाऊंगी
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तुम्हें, याद तो है न!
याद है, वो दिन
जब अचानक ही
थाम लिया था हाथ
मैनें, तुम्हारा
और, बहुत देर तक बैठी
यूँ ही बतियाती रही, तुमसे
किसी बहाने
तुम भी तो कैसे
आह्लादित हो
इस स्पर्श से
मन ही मन
मुस्कुरा रहे थे
तुम्हारे दिल के हर शब्द
तब, इन लकीरों से होकर
बरबस ही मुझ तक,
खिंचे चले आ रहे थे
मैं भी, जाने क्या-क्या
कहती रही, बावरी-सी
जिनका कोई वास्ता ही न था
तुम्हारी उन लकीरों से
वो तो सिर्फ़ एक ज़रिया भर थीं
मेरी ख़ामोश मोहब्बत को
तुम तक पहुँचाने का
पर, सच तो यह है
कि मैं मिटा देना चाहती थी
अपने हाथों की सारी
मनहूस लकीरों को
कोरा कर देना चाहती थी
उसी वक़्त, हाथ मेरा
फिर खुश होकर
छाप लेती
वही रेखाएँ
जो तुम्हारे, हाथों में थीं
फिर तो न
‘मैं’, ‘मैं’ रहती
और न ‘तुम’
‘तुम’ रहते
‘हम’
एक ही हो जाते न
उसी पल में
सदा के लिए !
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पूरा फिल्मी है…
समंदर किनारे बैठे
तुम और मैं
सुनेंगे धड़कनों के गीत
अपने मन की ताल पर
हेडफोन का एक-एक सिरा
कानों में ठूँसकर
देंगे विदा दुनिया की
बेहूदा आवाजों को
बाँध लेंगे हौले से
मुट्ठी भर सपना
हाथों को पीठ पीछे
चुपके से बाँधकर
गिनेंगे एडियों तक
छूकर लौटती हुई
अनगिनत इच्छाओं की
बेचैन लहरों को
दूर आसमाँ से टकराता
भावनाओं का ज्वार
देगा भरम मिलन का
इधर, चुप्पी ओढ़ लेगा ह्रदय
नाराज बच्चे-सी, समेटनी होंगी
बेबस मन की तसल्लियाँ
हक़ीक़त की क्रूर दुनिया में
बस यही मायूसी तो मुमकिन है
रेत पर लिखे दो नाम
मिलते हैं, एक-दूसरे से
फिर हो जाते हैं ओझिल
न जाने किन दिशाओं में
चीखती-चिल्लाती स्मृतियाँ
वक़्त के बहाव को
टुकुर-टुकुर देख
बदल लेती हैं, अपनी करवटें
हम्म्म…यही सच है
जीवन का
बाकी सब तो
पूरा फिल्मी ही
है, न!
– प्रीति अज्ञात