कविता-कानन
माँ
माँ!
तुम एक मूर्ति हो
एक मूर्ति
जिसके रूप रंग
हाव-भाव
विचार, आचार, स्वप्निल
आकर्षक और कल्पनातीत हैं
जिसे देखकर
महसूस करता हूँ
वर्तमान, भूत और भविष्य के सारे परिदृश्य
जो आँखों में
सदा समाये रहते हैं
माँ!
तुम्हारे पास
शक्ति है
अतुलनीय
और अनोखी युक्ति भी है
जिसके सहारे तुम
जीवन के सारे उतार-चढ़ाव
प्रकृति के सारे परिवर्तन
सूरज, चाँद, सितारे
धरती से लेकर आकाश
और ग्रह नक्षत्रों तक
सभी को छुपा लेती हो
आगोश में अपनी
और देती हो हमेंं
सदा आशीर्वाद
इसी के सहारे भाग जाते हैं
सारे क्लेश
शांत हो जाते हैं
सारे परिवेश
माँ!
तुम्हारे स्पर्शमात्र से
भाग जाती हैं
सारी वेदनाएँ और
देखो तो
उभर आतीं हैं
अनेक सवेदनाएँ
जिससे जीवन
सरस, सुन्दर और मधुर बन जाता है
*************************
नया आकाश
सजे हुए हैं कमरे में
दिन भर के
सारे खटर-पटर
दिन बीतता है सारा
उहापोह में
इधर-उधर
छिपी हुई है बेईमानी
मन के इरादों में
आनाकानी मत करो
लिखने में
बीती हुई बातों को
तरतीब से जमाओ
और ताबूत से निकले
स्मृतियों के गीत गाओ
अँधेरे में तो चार कतरे
उजाले के चमकते हैं
पथरीली गलियों में
गिरकर शब्द भटकते हैं
आकाशी पहरे में
इन्द्रधनुष अभी तक ठहरा है
रंग बहुत गहरा है
चुन लो तुम एक रंग
ग़लतियाँ सुधार कर
नया आकाश बुन लो तुम
*************************
बातों की पतंग
दूसरों के घरों में
झाँकने के उद्देश्य से
खोली गयी खिड़की ने
मेरे ही घर के सारे रहस्य
उगल दिये
दरवाज़ा रखता हूँ बंद मैं
इसीलिए
परदे पर लगा हुआ है पैबंद
मैंने गीली हवा को
सूखने के लिए
धूप के नीचे रख दिया है
सूरज ने बढ़ा दिया है एक्सीलेटर
और धरती पर बरसा रहा है अंगारे
ताकि धुआँ-धुआँ हो जाये आसमान
धूल भरे गुब्बारे की तरह
और विलीन हो जाये
धुएँ-सा होने को
अब तो चकाचौंध में
बदल गयी हैं परिभाषाएँ
रोज पढ़ते हैं चोरी, डकैती, हत्याएँ,
चीखें और कुत्सित इच्छाएँ
किसका करें विश्वास
कोई देता नहीं दिलासा
अख़बारों में शर्मसार होते अक्षर
अर्थ खोने लगे हैं
भीड़ में खो गया है
एक टुकड़ा आसमान
पर बातों की पतंग
आकाश में उड़ रही है
भोर से जारी है
यही सिलसिला
जो नहीं करता किसी से
शिकवा गिला
– श्रीधर आचार्य शील