गीत-गंगा
माँ की पीड़ा कौन हरेगा
जो संरक्षण देती आयी, उसका रक्षण कौन करेगा
सबकी पीड़ा हरने वाली, माँ की पीड़ा कौन हरेगा
जिसने देहरी लांघी अपने, बच्चों को बलवान बनाने
जिसने नापी मीलों दूरी, पग-पग पर सम्मान बचाने
जिसने धूप को छाया समझा और अश्रु को मीठा पानी
उस दुख की रीती गगरी को, सुख-जल देकर कौन भरेगा
सबकी पीड़ा हरने वाली, माँ की पीड़ा कौन हरेगा
लोक दिखावे की ज़िद पर जो, विष के घूँट पिए जाती है
सुबह-शाम होकर अपमानित, निज मन मार जिए जाती है
आँगन का तम हरने वाली, तम में ख़ुद डूबी जाती है
तुलसी के सूखे पौधे सम, दीपक जड़ में कौन धरेगा
सबकी पीड़ा हरने वाली, माँ की पीड़ा कौन हरेगा
कुछ वर्षों से शारीरिक बल, नेत्र ज्योति सब घटती जाती
सौ रोगों की एक दवा सुख, पूरे घर में मिल न पाती
फेरे जगदीश्वर की माला, दुख को नियति मान रही पर
जिसके कानों आह न पहुँचे, उस ईश्वर से कौन डरेगा
सबकी पीड़ा हरने वाली, माँ की पीड़ा कौन हरेगा
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जिसको लौटा सके न नयन द्वार से
तुम सरीखा कुंवर उस कहानी में था,
जिसको लौटा सके न नयन द्वार से।
बिम्ब-प्रतिबिम्ब का था मिलन लग रहा,
नैन वाचाल थे, मौन धारे अधर।
धैर्य का साथ था छूटता जा रहा,
वेदना तीव्र थी, ज्वार था वह प्रखर।
साज-सिंगार सब थे प्रफुल्लित बड़े,
अर्थ पाते गये, जो परस मात्र से।
क्लांत तन-मन विकल था तुम्हारा भी जब,
क्यों झिझकते ठिठकते रहे प्यार में।
लक्ष्य उसको कठिन ही लगा है सदा,
जो भ्रमित रह गया जीत में हार में।
वह कहानी, कहानी कहाँ रह गयी!
हमने-तुमने जिया जिसको अधिकार से।
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निर्वासित फिर ऱाम मिले
बैठ ज़रा बतिया ले मन तू,
कुछ पल तो आराम मिले।
जीवन रामायण में शायद,
निर्वासित फिर ऱाम मिले।।
गूँज रहा हो व्याकुल करता,
शापित दशरथ कर्म कहीं।
कैकयी-सी दोषी हों कमियाँ,
भाग्य रहित परिणाम मिले।
जीवन रामायण में शायद,
निर्वासित फिर ऱाम मिले।।
बीतीं मर्यादित जो घडियाँ,
वे सीता भी हो जाएँ।
क्या संभव है लखन-प्रिया सम
प्रेम कहीं निष्काम मिले।
जीवन रामायण में शायद,
निर्वासित फिर ऱाम मिले।।
वन-वन कंटक पथ पर भटके,
भाव लखन बन कर कितने।
निश्चित है निश्छल रहकर ही,
पंचवटी सुख धाम मिले।
जीवन रामायण में शायद,
निर्वासित फिर ऱाम मिले।।
– पूनम अवस्थी बेबाक