गीत-गंगा
माँ
केवल तेरे ही अधरों पर गीतों की गुन-गुन होती है
केवल तेरे ही चलने से झंकार प्रस्फुटित होती है
तेरे होठों पर लोरी है,फिर चँदा और चकोरी हैं
घी-माखन से भरी हुई सुंदर सी एक कटोरी है
तेरे आ जाने से महके हैं द्वार सभी दिशाओं के
तेरे कोमल सुर में झंकृत रहते हैं गीत हवाओं के
तेरी ऑंखों से बरस रहे हैं गंगाजल के फ़व्वारे
सारा जीवन अंधड़ ओढ़ा ,स्नेह-प्रीत मुझ पर वारे
माँगा जब भी चँदा मैंने ,थाली में ला बैठाया है
फिर आँचल में भरकर मुझको गीत सुरीला गाया है
तू यहीं कहीं छिप बैठी है ,मेरे मन की अँगनाई में
मुझमें जो कुछ भी ज़िंदा है ,तेरी ही तो परछाई है
तेरा अस्तित्व न मुझमें हो ,यह तो नामुमकिन होता है
माँ तू ही तो है कल्याणी ,आशीषों का एक सोता है
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भले ही साथ मत देना
संबंधों से संबोधन तक गिरह न जाने कितनी भीतर
और दंश चुभते हैं मन में ,मन हो जाता है ज्यों बेघर
सन्नाटे आवाज़ लगाते , जीने-मरने की कोशिश में
और कमलिनी रूठ गई है ,अंधियारे के उस झुरमुट में
मन की गति हुई लंगड़ी है,चार कदम भी चल न पाती
टूटे दंशों की स्मृति से हर पल जाने क्यों टकराती
जितनी बार पृष्ठ पलटे हैं पीड़ा बढ़ती ही जाती है
कहाँ कोई सुन पाता मन को प्रस्तर प्रतिमा बन जाती है
श्वासों की गति थिरक रही है ,जाने किसकी करे प्रतीक्षा
और स्वयं मन के द्वारे पर खड़ा हुआ ‘मैं’ लेकर भिक्षा
साथ भले ही मत देना तुम यूँ पर बेचारा मत कर जाना
माटी का तन टूटा -बिखरा किरचों को किसने पहचाना
शाश्वत सौगंधों की बातें हो जाएँगी तीतर-बितर यूँ
आने वाले कल की झोली ,कोई यहाँ न भर पाएगा
मखमल के पैबंद लगे हों बेशक रेशम की पोशाकें
मन के भीतर का कोना बस,अँधकार में रह जाएगा |
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ये ज़िंदगी का फ़लसफ़ा
ज़रा ज़रा महक तो ले ,ज़रा सा तू बहक तो ले
ये ज़िंदगी का फ़लसफ़ा ,ज़रा इसे समझ तो ले
ज़रा सी आँख खुल गईं तो ज़िंदगी सफ़र लगी
ज़रा सी मुंद गईं पलक तो ज़िंदगी ख़बर लगी
न जाने कितने मुखड़े हैं ,न जाने कितने दुखड़े हैं
कभी पलक पे अश्रु हैं कभी है प्यार की नमी
ज़रा ———-
कहाँ से आए हैं सभी ,चले कहाँ को जाएंगे
जो प्यार है दिया -लिया उसीमें झिलमिलाएँगे
ये दुःख औ सुख के वृत्त में घिरे रहे हैं हम सभी
जो मुस्कुराके बोल ले ,उसीकी है विजय हुई
ज़रा ज़रा ———
मैं ज्योत स्नेह की बनूँ ,अँधेरा दूर कर सकूँ
मैं अश्रु पोंछ दूँ सभीके मन के घाव भर सकूँ
जो दे दिया प्रकृति ने ,उसे भी मैं संभाल लूँ
जो कंटकों में हो घिरा ,उसे भी मैं निकाल लूँ
ज़रा ज़रा ——————-
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कहाँ संवेदना है?
उष्ण मन है,उष्ण है तन
पर हरारत भावना की
जानते हैं एक हैं सब
पर कहाँ संवेदना है?
और जो भी दिख रहा है
वो कहाँ आराधना है?
साँस में जाले पड़े हैं
प्राण में छिप बैठी सिसकी
क्या कहीं कुछ पारदर्शी
सब यहाँ क्यों खोखला है?
मान और अपमान सब है
पर यहाँ सम्मान कब है
दर्द जो सोखे सभी का
ऐसा ब्लाॅटिंग ही कहाँ है?
कब ?किसे?कैसे बताऊँ
सबकी ये ही त्रासदी है
समय की जंजीर बाँधे
परीक्षा की यह घड़ी है।
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इस पनघट पर
साँझ भरे झुटपुट सी बेला
भरा रहा है हर दिन मेला
चौखट पर मैं खड़ी सोचती
क्या जीवन का यही झमेला ?
हर एक दिन से प्यार किया है
श्वाँसों का व्यापार किया है
अंतर्मन में रहे गूँजता
शब्दों का सन्यासी मेला —
आस बहुत रखी है मन ने
श्वाँस अभी चलती है तन में
रूई सी धुनता रहता है
जाने मन क्यों यहाँ अकेला ?
इस पनघट से उस पनघट पर
जाते-जाते साँझ हो गई
बहुत थके हैं अब पग मेरे
कठिन बना जीवन का खेला —
मन को अब बहलाऊँ कैसे ?
श्वाँसों में गति लाऊँ कैसे ?
पगडंडी से उतर गई हूँ
बही जा रही जैसे रेला —|
– डॉ. प्रणव भारती