देह की गति, राम जानें,
मन तुम्हें अर्पण है साथी!
हम अपरिचित-से मिले थे,
एक अनजाने सफर में।
क्या पता था तब, हृदय को,
भूल आएँगे डगर में।
था किसे मालूम मैं क्षण-
भर न तुम बिन रह सकूँगी।
तुम बना लोगे ठिकाना,
साथिया! मन के नगर में।
अब तुम्हारे बिन ये जीवन,
उर बिना धड़कन है साथी!
देह की गति, राम जानें,
मन तुम्हें अर्पण है साथी!
वो अधर मेरे नहीं हैं,
हो न जिनमें प्यास तेरी।
वो हृदय मेरा नहीं है,
हो न जिसमें आस तेरी।
वो नहीं मेरे नयन,
जिनमें न हो प्रतिबिम्ब तेरा।
श्वांस वो मेरी नहीं,
जिसमें न महके श्वांस तेरी।
मैं बनी तस्वीर तुझ-सी,
तू मेरा दर्पण है साथी!
देह की गति, राम जानें,
मन तुम्हें अर्पण है साथी!
तू न हो जिसकी दवा,
अपना उसे क्यों रोग कह दूँ?
तू न हो सम्मुख अगर,
किसको बता, संयोग कह दूँ?
प्रीत की तपस्थली में,
प्राण की तू प्रार्थना है।
साधना तू साधिका की,
योगिनी का योग कह दूँ।
मंत्र-सा गुंजित हृदय में,
आज स्पंदन है साथी।
देह की गति, राम जानें,
मन तुम्हें अर्पण है साथी!
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पाकर तुझको हुई दूब मैं
देख तुझे, गालों में सरसों,
लहर-लहर लहराये रे!
सजना मेरा रंग साँवला,
पीला पड़ता जाये रे!
बागों में तितली को देखूँ,
फूलों से अठखेल करे।
लेकर अंक मगन भँवरे को,
अल्हड़ कलिका मेल करे।
कोमल-कोमल बेल विटप के,
तन से लिपटी जाये रे!
सजना मेरा रंग साँवला,
पीला पड़ता जाये रे!
झुर-झुर बहती हवा वसन्ती,
तन का ताप बढ़ाती है।
जैसे हो फुनगी रसाल की,
चुनरी यूँ बौराती है।
महुआ-सी मादकता लेकर,
यौवन, देह समाये रे!
सजना मेरा रंग साँवला,
पीला पड़ता जाये रे!
पाकर तुझको हुई दूब मैं,
बारहमासी हरी-हरी।
प्रेमातुर मन रहे बावला,
मैं भावों से भरी-भरी।
जो अधरों का स्वाद चखे हो,
उसे शहद क्या भाये रे!
सजना मेरा रंग साँवला,
पीला पड़ता जाये रे!
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मूढ़ समझे या मुझे सीता कहे जग
सुरमयी सम्वेदनाओं से सुवासित,
गीत समझे या मुझे गीता कहे जग।
स्वप्न, जो फिरते रहे दर-दर उपेक्षित,
निज नयन के सम्पुटों में दूँ शरण मैं।
अग्नि में कर्तव्य के, हर सुख जलाकर,
स्वयं हर्षोल्लास का करती हरण मैं।
लिख लिया प्रारब्ध में वनवास मैंने,
मूढ़ समझे या मुझे सीता कहे जग।
दूरियाँ तय कर रही हूँ वो निरंतर,
मध्य जो मार्तण्ड-शशि के फैलती है।
स्वेद-बूँदें भाल से मेरे झरें जब,
चाँदनी उनसे नहाती, खेलती है।
लक्ष्य के ही संग, फेरे ले चुकी हूँ।
अब किशोरी या कि परिणीता कहे जग।
दम्भ के दलदल दिखें तो पग बचाती,
चोटियाँ चूमूँ, विनत रहकर धरा पर।
स्नेह में हर चोट, होकर मौन सह लूँ,
मान हो चोटिल अगर, बोलूँ गरजकर।
कौन हूँ! क्या हूँ! मुझे इतना पता है,
पूर्ण समझे या मुझे रीता कहे जग।
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फिर कुछ स्वप्न नए बोने हैं
ऊसर पड़ी हुई धरती पर,
हल, कुदाल, फावड़े चलाकर,
खर-पतवार उखाड़े सारे,
कंकड़-पत्थर सब चुन डाले,
सींच रही हूँ अब आँखों को,
दृगजल को बरसात बनाकर,
बादल का क्या करूँ भरोसा,
कब तक आस लगाकर बैठूँ,
मैं कृषिका हूँ, मुझे लहू से,
हाथों के छाले धोने हैं।
फिर कुछ स्वप्न नए बोने हैं।
ज्ञात मुझे है, नहीं उगेंगे,
बीज सभी, दृग की माटी में,
और चहकते सारे अंकुर,
नहीं बनेंगे विकसित पौधे,
लेकिन फिर भी बीज रोपना,
मेरी तो जिम्मेदारी है,
मेरे ही श्रम पर आधारित,
है क्यारी-क्यारी जीवन की,
मैं तो श्रमिका हूँ, मुझको तो
अपने सारे सुख खोने हैं।
फिर कुछ स्वप्न नए बोने हैं।
पानी, धूप, खाद पाकर भी,
सुप्त रहे जो बीज मृदा में,
उसका कैसा मातम करना,
जो नव अंकुर फूट पड़ेंगे,
उनकी ही सेवा में तत्पर,
रहना है मुझको आजीवन,
एक बीज, सौ बीज जनेगा,
स्वप्नों से आँगन महकेगा,
इन स्वप्नों से ही तो पोषित,
दुनिया के कोने-कोने हैं।
फिर कुछ स्वप्न नए बोने हैं।
– वी. एम. वृष्टि