कविता-कानन
मंच
तब तक मंच खाली था
कुर्सियाँ भी सजी थीं
फूलदान रखे थे
सामने दर्शकों के लिए भी
बैठने की व्यवस्था थी
प्रचार बहुत पहले से ही किया जा रहा था
आयोजक प्रयोग कर रहे थे
अपेक्षानुरुप भीड़ भी पहुँची
एक से एक विद्वान, पढ़े-लिखे इंसान
वक्ता भविष्य की सोच रखने वाले उपस्थित थे
पर किसी ने भी बिन बुलाए
मंच पर बैठने की मर्यादा भंग नहीं की
कुछेक मन ही मन चाह रहे थे
लेकिन शर्म झिझक आड़े आ रहे थे।
मंच सुनसान हो रहा था
बिन दूल्हे की बारात की तरह
भीड़ भी उकता रही थी
कुछ घर के लिए उठने भी लग गये
तभी
मंच खाली देखकर
भीड़ से कुछेक निकले
बाँहें चढ़ाते हुए
असभ्य तरीके से आकर मंच संभाला
पदासीन हुए, कुर्सियाँ धन्य हुईं
और मंच सुशोभित हुआ
उकताई भीड़ शांत हुई
व्याख्यान बनवाये गये
संबोधन शुरु हुआ
उपस्थित लोगों को
दर्शक एवं श्रोता कहा गया।
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मेंढ़क और मछलियाँ
ग्रीष्म में जब नदी
तालाब होने लगे कम
मछलियों का टूटने लगा दम
कुछ तो पकड़ ली गई ज़िन्दा
बना दी गयीं रसोई का हिस्सा
मेंढ़क जाने लगे थे
ज़मीं के अंदर
रास्ते जो मिल गये
फटे हुए विवर
ढूढ़ लिया सुरक्षित स्थान
जहाँ नहीं था कोई नुकसान
बादलों की आहट हुई
बौछारों के साथ गड़गड़ाहट हुई
मेंढ़क निकले
लगे टर्रटर्राने
पानी की बढ़ी पुकारें
मछलियाँ तब भी शांत ही रहीं
न पुकारा, न चिल्लाया
ना ही हो-हल्ला मचाया
बादलों ने पानी बरसाया
तालाब भर आया
साथ ही एक विवाद भी गहराया
बादल बरसे मछलियों की
दीन दशा देखकर
अथवा
मेंढ़कों की पुकार सुनकर?
– मोती प्रसाद साहू