गीत-गंगा
भीतर भीतर सहरा है
आती जाती साँसों पर,
लगा वक्त का पहरा है।
ऊपर ऊपर मधुवन है,
भीतर भीतर सहरा है।।
काजल वाली आँखों के,
उजले उजले सपने हैं।
अपने अपने हिस्से के,
मन्तर सबको जपने हैं।
ओस चाट कर प्यास बुझाती,
रेगिस्तानी रेत है।
मीठे जल वाला कुआँ,
अपनी पहुँच से गहरा है।
ऊपर ऊपर मधुवन है,
भीतर भीतर सहरा है।।
पत्तों-सी झर जाती खुशियां,
डाली जैसे दुखड़े।
नौसिखिया हाथों से अक्सर,
पौध प्यार की उखड़े।
खरपतवार खड़ी रह जाती,
मगर सूखती फ़सलें।
मौसम का हलकारा बे-
मौसम आकर ठहरा है।
ऊपर ऊपर मधुवन है,
भीतर भीतर सहरा है।।
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झाँकती तन्हाइयाँ
झूमती इन टहनियों से
झाँकती तन्हाइयाँ,
खो गई जाने कहाँ अब
वे सघन अमराइयाँ।
जोश लहरों में भरा तो,
सीपियाँ फिकने लगीं।
कोड़ियों के भाव में ही,
कोड़ियाँ बिकने लगीं।
दिख रही सहमी हुई अब,
रेत पर परछाइयाँ।
ईंट पत्थर के सुघड़,
संसार अब होने लगे।
शहद से मीठे मधुर,
अहसास सब खोने लगे।
दर्द क्यों समझे नहीं
लेकर नई बीवाइयाँ।।
– रेखा लोढ़ा ‘स्मित’