कविता-कानन
भीड़ तंत्र
इंसानी भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता
उसे होती है पत्थर मारने की आज़ादी
सेना पर, पुलिस पर
उसे जन्मजात अधिकार होता है
स्त्री आंदोलनों की भीड़ में शामिल होकर
निर्भया की मशाल लिए
किसी लड़की का सीना दबोच देने का
या सींग सदृश अपने पौरूष अंग गड़ा देने का
क्योंकि उसके ख़यालों में नहीं होती
अपने ही घर की माँ, बहन, बेटी
वह होता है फ़क़त भीड़ का एक हिस्सा
वो कर सकते हैं क़त्ल और बलात्कार भी
किसे पकड़ोगे किसे दिलाओगे सज़ा
और किसको इंसाफ़
दशकों कानूनी दाँव-पेंच के बाद
जिन्हें मिल भी गया इंसाफ़
आज भी रो रहे हैं खून के आँसू
अंधबाधित कट्टरता की हदें लांघती ये भीड़ है हैवानों की
किसी भी संस्कृति, मानवता से परे है ये भीड़
ये है भीड़तंत्र
इसकी कोई न जात होती है और न ही कोई चेहरा।
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विदाई का उपक्रम
जब-जब तुम
अलविदा कहने की बनाते हो प्रस्तावना
मुझे याद हो आता है
तुम्हारे कंधे पर टिका हुआ मेरा माथा,
वह वार्तालाप
जिसकी कोई भाषा तो नहीं थी
पर थरथराते अधर थे
तुम्हारा मेरे साथ होना
केवल भाषा ही नहीं
सुगंध भी होता है
वही सुगंध रच बस गई है
मेरे व्याकरण में
मैं जानती हूँ
तुमसे अलग होकर
रहना क्या होता है
कितना भयावह होगा
क़लम का रीतापन
पृष्ठों का सूनापन
अंधकारमय मेरा मन
तुमसे जुड़कर मैं क्या नहीं हूँ
एक भाषा,
एक उत्सव,
जीवन में बिखरता गुलाल।
तुम्हारा
विदाई का उपक्रम
पुनरावृत्ति मेरे विरह की??
तुमसे बिछड़ कर मैं
मैं ही नहीं रहूँगी
क्या किसी दिन मैं भी?
किसी दिन क्या
कुछ भी तो नहीं।
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ख़ुशनुमा तेवर
थोड़ी-सी माटी नेह की
मैं पा ही गयी
एक पौधा प्रेम का मैं रोप बैठी
अब मेरे आँगन में
सूरज उगने के साथ
कलियाँ
अपने आप खिल जाया करती हैं;
और साँझ ढले सबकुछ
अपने आप महक जाया करता है
ख़यालों में हर पल
तुम्हारे होने का एहसास
तुम बार-बार चौंक जाते हो न
जब कहती हूँ मैं
“मुझे तुमसे नहीं
तुम्हारे प्रेम से प्रेम है”
तुम ख़ुद को
प्रेम से नहीं कर पाते हो अलग,
और युधिष्ठिर के लक्ष्य सदृश
मुझे दिखता है बस प्रेेेम
तुम जो कोई भी हो मेरे लिए
तुमसे प्रेम का नहीं है वजूद
प्रेम के होने से तुम हो
ख़ुशियों का जो हुजूम
मेरे दरवाजे से जा चुका था
तुमने ज़िद की थी न
उसे लौटा लाने की
वह शानदार लम्हे लौट आए हैं
ज़िन्दगी अब मुखौटा नहीं है
हक़ीक़त है
अंतस की व्यथा को
ध्वस्त करते हुए
ज़िन्दगी के तेवर
अब हर पल ख़ुशनुमा है।
– यामिनी नयन गुप्ता