कविता-कानन
भरी सभा में
यहाँ बात नहीं हो रही
महाभारत के समय की उस कुख्यात सभा की,
जहाँ भरी सभा में द्रौपदी का जब चीरहरण हुआ
और कोई विरोध स्वर नहीं उठा सभा में
और अंधो के साथ आँखों वाले भी अंधे हो गऐ थे
तब द्रौपदी ने शपथ ली थी अपने बालों को
दुर्योधन के खून से रंगने की
यहाँ बात नहीं हो रही
राम के राज्य की उस सभा की भी,
जिसमें फैसला लिया गया था सीता को वनवास देने का
और सारी की सारी उच्च नैतिक ज़ुबानें गूंगी हो गई थीं
शायद उसी पल में पनपा होगा फैसला धरती में समा जाने का
यहाँ बात नही हो रही
धन-नन्द के दरबार की उस अभिमानी सभा की,
जहाँ निरादर किया गया था योग्यता के कुरूप होने का
और कोई शब्द आगे नहीं आया विरोध को
तब ही शायद चाणक्य ने चंद्रगुप्त को तलाशने का फैसला कर
इतिहास रचने की शुरूआत की थी
यहाँ बात नहीं हो रही
राजपूताना दरबार की उस आन-बान और शान की,
जहाँ विष का प्याला दे दिया गया था मीरा के हाथ में
और धर्म और प्रेम के परस्पर विरोधी होने पर जब मुहर लगी
और कोई नहीं था सभा में चीत्कार भरने वाला
तब ही शायद प्रेम ने ख़ुद को अलग कर लिया था धर्म से
यहाँ बात नहीं हो रही
औरंगजेब की उस धर्मांध सभा की भी
धर्मांध खामोशी की,
जहाँ गुरू तेग बहादुर ने सिर देकर भी
धर्मांध्ता को हरा दिया था
फिर भी खामोश रही सारी सभा
और तब ही शायद नींव रखी गई थी
पतन के पूरी सल्तनत की
यहाँ बात नहीं हो रही है
साऊथ-अफ्रीका के अंग्रेजो की उस सभा की,
जहाँ गांधी को उठा कर नीचे फेंका गया
और कोई विरोध नहीं हुआ सभा में
तब ही शायद सफर शुरू हुआ
गाँधी से महात्मा बनने का
यहाँ बात नही हो रही
ब्रिटीश-भारत की उस न्यायिक सभा की
जहाँ मौत की सजा दी गई भगत सिंह और साथियों को
और कोई विरोधी स्वर नहीं उठा सभा में
तब ही शायद आज़ादी की नींव रखी गई थी
यहाँ बात हो रही है
उस सभा की, जिसमें
मैं भी हूँ, आप भी हो और है
हमारे तमाम जानने वाले
यहाँ बात हो रही है उस सभा की, जिसमें
लोकतंत्र है, सरकार है, राजनीति और विपक्ष भी है
यहाँ बात हो रही है
उस सभा की, जिसमें
बुद्धिजीवी है, विचारक है और सुधारक भी
यहाँ बात हो रही है
उस सभा की, जिसमें
शक्तिशाली मीडिया है, समाचार चैनल है और पत्रकार भी
यहाँ बात हो रही है
उस सभा की, जिसमें
धर्म है, धर्म-प्रचारक भी और धार्मिक स्थल भी
पर यह सभा भी
उन तमाम पुरातन सभाओं-सी ही
गूंगी भी है, बहरी भी और अंधी भी
हाँलाकि सभा में बैठे लोग
रोज़ चीखते हैं, चिल्लाते हैं, चीत्कार करते हैं
पर अपने-अपने स्वार्थो में दबे ये तमाम चीत्कार
कोई स्वर पैदा नहीं करते, बस
खामोशी से तैरते रहते हैं
तमाम गूंगे सभा-सदों से
भरी सभा में।
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युग
बदल देता है बेटा
पिता के बैठने की पुरानी गद्दी को
नई रिवाल्विंग चेयर से
बाँध कर रखवा देता है
पुराने बही खातों को
पीछे गोदाम में और
नए काउंटर पर लैपटॉप रख,
की-पैड पर उँगलियाँ चला,
करने लगता है तमाम हिसाब
उतर जाती है सारी की सारी
पुरानी फ्लोरोसैंट ट्यूबें
और नई एल ई डी लाईटें
जगमगा उठती हैं
बदल गए हो जैसे दुकानदारी के
सभी पुराने ढंग, नए ढंगों से
पिता की ही तरह
थक गया है सारा पुराना सामान
अवकाश प्राप्ति को तत्पर
पिता के चेहरे पर
विरासत के संभल जाने की
ख़ुशी की मुस्कान
न जाने कितना कुछ समेटे बैठी है
हाँ, एक युग बदल गया है!
– हरदीप सबरवाल