गीत-गंगा
भगीरथी के हम रखवाले
भगीरथी के हम रखवाले,
बनकर घूम रहे हैं दर-दर।
बैनर की प्रतियाँ शहरों में,
जगह-जगह चिपकाते हैं।
नए-नए मुद्दों को लेकर,
नित आवाज़ उठाते हैं।
दुर्गन्धों में दबे हुए हैं,
फिर भी गंगा मैया के स्वर।
जय गंगा की बोल-बोल कर,
क्या गंगा बच जाएगी?
अरे! हमारे कर्म प्रदूषित,
त्राहि-त्राहि मच जाएगी।
मन भर कचरा भेज रहे हैं,
निज घर से गंगा माँ के घर।
कितने ही अभियान चला लें,
विफल रहेंगे यदि सोए।
कॉलर पकड़ो; ख़ुद से पूछो,
गंगा आख़िर क्यों रोए?
संतानो! माँ के प्रति मिलकर,
सबको होना होगा तत्पर।
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घर का भार उठाता हूँ
इन दो छोटे हाथों से मैं,
काम बड़े कर पाता हूँ।
घर का भार उठाता हूँ।।
चार किताबें, कॉपी लेकर,
विद्यालय जाना था संभव।
माँ-बापू की बीमारी में,
पढ़ना मेरा हुआ असंभव।
‘गरम चाय’ की टपरी पर हाँ!
मैं ‘छोटू’ कहलाता हूँ।
घर का भार उठाता हूँ।।
टिन्नी छुटकी बिन्नी बड़की,
दो बहनें मेरी बेचारी।
टिन्नी की पढ़ने की इच्छा,
बिन्नी की शादी की बारी।
इनकी ख़ुशियों की ख़ातिर मैं,
रोज़ काम पर जाता हूँ।
घर का भार उठाता हूँ।।
मिट्टी की गुड़िया से छुटकी,
यह इक बात कहा करती है।
‘ठिकरी’ लगे हुए कपड़ों को,
बेचारी पहना करती है।
नई ‘फ्रॉक’ दिलावानी है सो,
पैसे चार बचाता हूँ।
घर का भार उठाता हूँ।।
– शिवम खेरवार