कविता-कानन
बेटी की विदाई
बेटी जा रही है
दुल्हन बनकर
अलंकारों से लदी हुई
सज-धजकर
बाराती बहुत ख़ुश है।
हो-हुल्लड़, गाना-बजाना
हँसना-खिलखिलाना
चारों तरफ ख़ुशी का कोलाहल है।
परंतु माँ
माँ नीरव है
शांत है
आँखों-आँखों में
एक फिल्म देख रही है-
प्रसव वेदना
दूध पिलाना
उंगली पकड़कर चलाना
नहलाना-धुलाना
बड़ी होना
बड़ी होना
और बड़ी होना
और
अश्रु धारा के साथ बह जाना
बहा देना।
फिल्म चल रही है
एक मूक फिल्म
फिल्म देख रही है
एक अकेली दर्शक
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जूता मत बनो
अगर जूता खाना पड़े
तो खाओ जूते
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
किसी का जूता मत बनो।
झाड़ो, पोंछो, साफ करो
किसी के जूते
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
किसी को जूता मत पहनाओ।
यदि मजबूर हो
तो किसी के जूते को
सिर पर ढोओ
ढोओ… ढोओ… ढोओ
कोई बात नहीं
मगर बंधु!
किसी के जूते के आगे
सिर मत झुकाओ।
दबी हो गर्दन
किसी के जूते के नीचे
तो दबी रहे
रोओ… कराहो
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
उस जूते को मत सहलाओ।
जूता पहन कर जाना
जहाँ वर्जित हो
तुम्हारे लिए
वहाँ बिना जूते के जाओ
विरोध मत करो
कोई बात नहीं
मगर बंधु!
वहाँ जूते को छिपाकर मत जाओ
– चित्तरंजन गोप लुकाठी