कविता-कानन
बूढ़ा बरगद
न जाने कितनी मुद्दतों से खड़ा है
अचल अडिग स्थिर मौन
अपना सीना ताने
बिलकुल हिमालय की मानिन्द
इसके समकक्ष दरख्तों ने
कब का साथ छोड़ दिया
फिर भी यह खड़ा है
परोपकार की ख़ातिर
न जाने कितने बच्चे
इसकी गोद सदृश विशाल जड़ तले
खेलकर बड़े हो गये
और आज भी यह
बेशुमार मुहब्बत लुटा रहा है उनके बच्चों पर
बचपन से देखा है मैंने इसे
अक्सर चोटिल करती थी गेंदें
पर उफ्फ तक नहीं करता यह
इसकी गोद में बैठ विद्यालय के
कितने ही विद्यार्थियों ने
शिक्षा ग्रहण की होगी
याद है मुझे वो लम्हें
जब मैं भी इसकी छाया तले
देर शाम तक पढता था
वो ठंडी पुरवईया पवन
साथ वाली खेत की लहलहाती सरसों
गाँव वाले दोस्तों की टोली
वो ताड़ के डमको से क्रिकेट का खेल
भरी रहती खुशियों की झोली
इसकी गोद में घंटों व्यतीत करना
कुछ दोस्तों की सुनना
कुछ अपनी सुनाना
शायद अब दुबारा नहीं होगा
कितने आधुनिकीकरण हुए
नई इमारतें, सड़कें, ऊँचे टाॅवर
और न जाने क्या-क्या?
रहन-सहन भी बदले लोगों के
पर न बदला तो सिर्फ एक चीज़
यह बूढा बरगद का दरख्त
जो खेला करते थे कभी छाया तले
इंतज़ार करता उन सपूतों का
यह बूढा बरगद का दरख्त
काश! वो आते
हमारा हाल न पूछते सही
पर अपना हाल तो सुनाते
वो बचकानी हरकतें न सही
अपना तज्रिबा तो दिखाते
जीवन के आखिरी क्षणों में
फ़लक की ओर
निर्निमेषित पलकों से निहारता
बस यही सोचा करता है
यह बूढा बरगद का दरख्त
कभी वक्त था जब यह भी
जवान हुआ करता था
आँधी, तूफ़ान, इन्द्र की क्रूरता
हँसते मुस्कुराते सहता था
पर मुद्दतों के साथ अब इसकी
बूढी टहनियों में जान कहाँ?
अब हल्की-सी पुरवईया झोंका भी
कुछ कमज़ोर टहनियाँ गिरा जाती है
उन सपूतों की निष्ठुरता देखकर
उनकी यादें इसका वजूद हिला जाती है
फिर भी कर्म की ख़ातिर खड़ा रहेगा
यह बूढा बरगद का दरख्त
बिल्कुल हिमालय के मानिन्द
अचल अडिग स्थिर व मौन।
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रोटी
इंसानों को लगती है पर
रोटी को नहीं लगती लू
खाने वाला तब भी खाता है
पापड़ बन जाने के बाद
बिना किनारों को तोड़े
बिना घी और अचार के
बिना सब्जी और प्याज के
सिर्फ़ नमक के साथ
बासी भी नहीं होती रोटी
उनके लिए, जिनके पास
आटा नहीं होता
अगली शाम के लिए
खाते हैं वे और उनके बच्चे
मुस्कुराते हुए चबा-चबा कर
कुरकुराते हुए
आँखों में नहीं दिखते उनके
गिले, शिकवे और उलाहनें
दिखती है तो सिर्फ़ एक चीज़
भूख, भूख और भूख
– सूरज रंजन तारांश