नवगीत
बिटिया देख रही वो सपना
बिटिया देख रही वो सपना
जो न सपन में भी
था सोचा
देख अकेली बुलबुल प्यारी
बिछा रहा था जाल शिकारी
पर बुलबुल थी बड़ी सयानी
खोली अपनी ज्ञान पिटारी
चुपके जाकर बहेलिए को
चोंच मारकर जी
भर नोचा।
उस किसान घर कर्ज़ पुराने
आए थे हल-बैल उठाने
कुछ निश्चय मन ही मन करके
बुने कृषक ने ताने-बाने
बलशाली बाहों ने बढ़कर
लेनदार का गला
दबोचा।
सिखा गया बिटिया को सपना
कैसे करना रक्षण अपना
सोचा उसने संकल्पों के
हवन कुंड में होगा तपना
खींचेगी वो खाल खलों की
अगर किसी ने उसे
खरोंचा।
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खुद थामो पतवार
खुद थामो पतवार
बेटियों, नाव बचानी है।
मझधारे से तार
तीर तक लेकर जानी है।
क्यों निर्भर हो तुम समाज पर
जिसकी नज़रें सिर्फ राज पर।
तमगा उससे छीन बेटियों
करो दस्तखत स्वयं आज पर।
पत्थर की इस बार
मिटे, जो रेख पुरानी है।
जो समाज बैठा है तत्पर
तुम्हें निगलने घात लगाकर।
मगरमच्छ वो मुँह की खाए
तुम रखना यों जाल बिछाकर।
हो जाए लाचार
इस तरह, जुगत भिड़ानी है।
हों वज़ीर के ध्वस्त इरादे
कुटिल चाल चल सकें न प्यादे।
इस बिसात का हर चौख़ाना
एक सुरक्षित कोट बना दे।
निकट न फटके हार
हरिक यों गोट जमानी है।।
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बुझ न पाए अब दिया विश्वास का
शक्ति का
वर माँग तुमसे माँ भवानी!
छू रही नारी शिखर
उल्लास का।
तज चुकी है रूढ़ियों की
रुग्ण शैय्या
अब नहीं वो द्रौपदी, सीता
अहिल्या।
चाल हर शतरंज की वो
जानती है
ऊँट, रानी हो कि हाथी या
अढैया।
रच रही वो
जीत की अनमिट कहानी
फाड़ पन्ना हार के
इतिहास का।
भव मनाता पर्व जब नव
रात्रियों का
ओज नारी पर उतरता
देवियों सा।
क्यों नहीं अभिमान हो निज
पर उसे फिर
जब उसे जन पूजकर
सम्मान देता।
ज्योति यह
नारी! अखंडित जगमगानी।
बुझ न पाए अब दिया
विश्वास का।
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नारी जहाँ सताई जाए
बहुत विश्व में अब भी कोने
नारी जहाँ सताई जाए।
जिसने अक्षर कभी पढ़े ना
कविता उसको कौन सुनाए।
मिलते नहीं पेट भर दाने
पिसती लेकिन दानों जैसी।
चीखें रुदन दबा अंतर में
पिटती वो हैवानों जैसी।
स्वजनों को सींचे अमृत से
स्वयं हलाहल प्याला पाए।
व्यथा कथा यह उस नारी की
जिस पर नज़र न कोई जाती।
समानता के दावे झूठे
नर होते नारी पर हावी।
कभी प्यार के बोल सुने ना
गीत छंद के कैसे गाए।
जिन कदमों ने छुआ गगन को
कभी न उस कोने तक पहुँचे।
जहाँ बनी अभिशाप अशिक्षा
नरपशु लक्ष्मण रेखा खींचे।
कहाँ न्याय के मंदिर उसके?
कौन उसे वो राह दिखाए।
उसका कोई दिवस न आता
अंकित होती केवल गाथा।
देता है इतिहास गवाही
लिखने वाला ही यश पाता।
रचना तेरी देख रचयिता
तिल तिल अपना रूप गँवाए।
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मद्य निषेध सजा पन्नों पर
चीखें, रुदन, कराहें, आहें
घुटे हुए चौखट के अंदर।
हावी है बोतल शराब की
कितना हृदय विदारक मंजर!
गृहस्वामी का धर्म यही है
रोज़ रात का कर्म यही है।
करे दिहाड़ी, जो कुछ पाए
वो दारू की भेंट चढ़ाए।
हलक तृप्त है, मगर हो चुका
जीवन ज्यों वीराना बंजर।।
भूखे बच्चे, गृहिणी पीड़ित
घर मृतपाय, मगर मय जीवित।
बर्तन भाँडे खा गई हाला
विहँस रहा है केवल प्याला।
हर चेहरे पर लटक रहा है
अनजाने से भय का खंजर।।
काँप रहे हैं दर-दीवारें
कौन सुनेगा किसे पुकारें।
जनता के हित कहाँ हुआ कुछ
नेता गण जीतें या हारें।
हड़तालें हुईं, जाम लगे पर
कुछ दिन चलकर थमे बवंडर।।
दीन देश की यही त्रासदी
नारों में ही गई इक सदी।
मद्यनिषेध सजा पन्नों पर
कलमें रचती रहीं शतपदी।
बाहर बाहर लिखा लाभ-शुभ
झाँके कौन घरों के अंदर।।
– कल्पना रामानी