गीत-गंगा
बालगीत- जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं?
आने-जाने में, कहो क्या पाते हैं!
वहाँ सुनें हम कितनी बातें,
ऐसी-वैसी फितनी बातें।
सोच-समझ की जितनी बातें,
अक्षर-अक्षर इतनी बातें।
अलग किताबों से
बहुत पढ़ आते हैं।
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं!
‘क्या-क्यों-कैसे..’ कुछ हो, जो भी,
नहीं ज़रूरत, पर उसको भी।
दिनभर मग़ज़ खपायें तो भी,
पूछें सारे.. ‘देखा, वो भी?’
मगर कभी सोचा,
हमें क्या भाते हैं?
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं!
आशाएँ सबकी हों पूरी,
लिखना-पढ़ना बहुत जरूरी;
पर ऐसी भी क्या मजबूरी,
खेल-कूद-टीवी से दूरी?
सुखद-सुहाने पल
नींद में छाते हैं।
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं!
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बालगीत- मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
किसकी-किसकी बात करूँ मैं, सबके सब बेहद तगड़े हैं!
घर में सारे लोग बड़े हैं
मानों आफ़त लिये खड़े हैं
चैन नहीं पलभर को घर में
एक भोर से लगे पड़े हैं
हाथ बटाऊँ खुद से जब भी, ‘काम बढ़ाया’ थाप पड़े हैं
मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
घर-पिछवाड़े में कमरा है
बिजली बिन अंधा-बहरा है
इक दिन घुस बैठा तो जाना
ऐंवीं-तैंवीं खूब भरा है!
पर बिगड़ी वो सूरत, देखा, बालों में जाले-मकड़े हैं
मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
फूल मुझे अच्छे हैं लगते
परियों के सपने हैं जगते
रंग-बिरंगे सारे सुन्दर
गुच्छे-गुच्छे वे हैं उगते
उन फूलों से बैग भरूँ तो, सबके सब मुझको रगड़े हैं
मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
– सौरभ पाण्डेय