गीत-गंगा
बात! कुछ ऐसी हुई
बात!
कुछ ऐसी हुई;
बंद कर ली आँख,
कानों में रुई।
खेत से
आँखें चुराई
मेड़ ने
भेड़ियों की
बात मानी
भेंड़ ने
फिर झुकाई आँख,
खाईं में मुई।
कौन जाने
किस तरफ़
कोहराम है!
भोर की
खिड़की में
बैठी शाम है
भीत सहमे पाँख,
बूँदें मन चुई।
सर खुजाती
चंपियों में
मस्त हम
पुतलियों की
डोर से हैं
हस्त हम
हाथ में है चांख
आँखों में सुई।
जो कहें वे
मात्र वो ही
सत्य है
पक्ष के ही
पक्ष में अब
भृत्य है
गुदगुदी में काँख
आँहें अनछुई।
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किसे उबालूँ?
चली हवाएँ
फटी कनातें,
किस कोने में
बत्ती बालूँ,
आग लगी है किसे उबालूँ?
इसकी मानूँ
उसकी मानूँ?
कूड़ा करकट
क्या-क्या छानूँ?
पियूँ कि फेंकूँ
बहस कराऊँ
भाड़ मिले तो कल पर टालूँ।
नीर क्षीर की
संधि घनी है,
हंसों में भी
तना तनी है!
झूठ सांच की
गीली रपटें
सघन कुहासा कहाँ सुखा लूँ?
दूर किले में
दीपक चमके,
पानी में हैं
किस्से भ्रम के,
कहो बीरबल!
कहाँ है हांडी?
आग लगी है किसे पका लूँ?
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ओ ऊँट!
करवट देख रही जनता रे!
पगुराये मत, है सुनता रे!
कुछ तो चल
ओ ऊँट!
किसकी साजिश?
किसकी करनी?
छोड़ो भी, क्या
चिंता हरनी?
आसमान के गिनते तारे
बच्चे बेंच रहे गुब्बारे
अब्बू!
लंबा सूँट।
विद्वानों की
जीत हार में
चिड़िया उलझी
एक तार में
कालिदास का मुँह लटका रे,
विद्योत्तमा खड़ी फटकारे,
पीकर
कड़वा घूँट।
जब से पछुआ
हुई सयानी
पुरवाई की
विकट बयानी
संस्कृति के सोये रखवारे,
आशा भागी बड़े सकारे,
लेकर
कुंडा-खूँट।
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सपने और सब्र
पौवा कहो
पौना कहो
या फिर कहो सवा,
जिसको जहाँ
जिधर मिली
वो ले रहा दवा।
पद और
निरापद की जुगत
जिंदगी का हल
जो चाल
तुम्हें ठीक थी
वो और कहीं छल
प्यादों को
कोसते रहे
बाज़ी पलट-पलट
निर्वात को
भरती रही
खाली जगह हवा।
कुछ दूर के
थे ढोल, कुछ
सपने गरीब के
लगते नये-नये
कि कुछ
रिश्ते करीब के
तुमने यहाँ-वहाँ
जहां में
सेंकी रोटियाँ
इस पेट की
ख़ुराक को
तपता रहा तवा।
कहते रहे कि
सब्र का
मीठा मिलेगा फल
इतना मिला कि
डायबेटिक
हुए हैं आजकल
पैदाईसी की
बाढ़ में
गेंहूँ को छोड़कर
फिर आदमी को
चाहिये-
सोया चना जवा।
– अशोक शर्मा कटेठिया