कविता-कानन
बातों की पतंग
दूसरों के घरों में
झाँकने के उद्देश्य से
खोली गयी खिड़की ने
उगल दिये
मेरे ही घर के
सारे रहस्य
इसलिये
मैं दरवाजा
रखता हूँ बंद
परदे पर लगा हुआ है पैबंद
मैंने गीली हवा को
सूखने के लिये
धूप के नीचे रख दिया है
सूरज ने बढ़ा दिया है एक्सीलेटर
और अंगारे बरसा रहा है धरती पर
ताकि
आसमान धुँआ-धुँआ हो जाये
सीवरेज की खुदाई में
उड़ते धूल भरे गुब्बारे की तरह
और विलीन हो जाये
धुँए-सा होने को
अब तो देश धरम की
बातें बदल गयीं हैं
बदल गयीं हैं
चकाचौंध में
परिभाषाएं
पढ़ते हैं रोज चोरी, डकैती, हत्याएं
चीखें और कुत्सित इच्छाएं
किसका करें विश्वास
कोई देता नहीं दिलासा
अखबारों में शर्मसार होते अक्षर
अर्थ खोने लगे हैं
भीड़ में खो गया है
एक टुकड़ा आसमान
पर
बातों की पतंग
मन के आकाश में उड़ रही है
भोर से जारी है
यही सिलसिला
नहीं करता किसी से शिकवा-गिला
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औरत
औरत
जो उड़ान भरना चाहती है
उसका आकाश अलग है
उड़ते हैं परिंदे भी
उसी की इच्छा से
दिखाते हैं कलाबाजियाँ
देखते हैं
आँखें गड़ाये बच्चे
खुश होकर बजाते हैं तालियाँ
औरत
बनाती है पसंदीदा पराठे
पराठों में भर देती है
हाथों की मिठास
भूख किनारे में दुबककर
बैठ जाती है
औरत बिछाती है चादर
पलंग पर
रात उभरेंगे यहाँ सपने
कुछ दुख
कुछ दर्द
कुछ व्याकुलता
और कुछ इच्छाएँ भी
जो इसी चादर में छिपी हैं
भ्रम
सम्मोहन
कुछ भी नही है
चाहिए बस वह आँख
देख सके जो इन्हें
शक्ति होती है
महसूस करने की
आँखों में
औरत
औरत हो जाती है उदास
हर तरह से है वह संपन्न
धन, पति, बच्चे, मान, प्रतिष्ठा
भरा पूरा परिवार
पर औरत
फिर भी
हो जाती है उदास
सूरज चढ़ रहा है
बच्चे मचा रहे हैं
चिल्ल-पों
गैस पर चढ़ी है चाय
समय भाग रहा है
‘लो नौ बज गये’
तेज कदमों से चलकर
सूचना आई
नही आयेगी ‘महरी’ आज
बढ़ गया सारा भार
झुँझलाहट खा रही है मार
शब्द हो गये हैं वजनदार
जल्दी सभी को है
हल निकालना है
चल निकालना है
बेटा, हो जाओ तैयार
हाँ, थोड़ा पहले निकलकर
स्कूल जाते समय
ऑफिस में दे देना
मेरी अर्जी
छुट्टी की…!
– श्रीधर आचार्य शील