कविता-कानन
बरसों बाद गाँव
बरसों बाद मेरा
अपने गाँव जाना हुआ
पीपल के नीचे
ताश पत्ती खेली जा रही थी
वहीं पास में कुछ लड़के
हैंडपम्प पर
पानी भरती लड़कियों को
कनखियों से देख लेते
फिर मोबाइल की तरफ झुक जाती उनकी कमर
कल यह भी उसी पीपल के नीचे होंगे
गाँव के कुछ लोग
पहले से कहीं अधिक ज़िम्मेदार मिले
ज़िम्मेदार मिले वो दरख्तों के झुरमुट
जहाँ मैं भरा-पूरा हरा-भरा
सघन जंगल छोड़ गयी थी
एक बस्ती छोड़ गई थी
कच्चे-अधपक्के घरों की
अब पक्के आलीशान मकानों की कतारें थी वहाँ
और जो खेत छोड़ गयी थी
ज़मीन के नाम पर वो लजा देने वाले
छोटे टुकड़े में मौजूद दिखा
जब शहर गयी थी मैं
मुझसे गले लगकर बिलखती माँ छोड़ गयी थी
आँगन में आम के तने से सिर टिकाये
छुप-छुप कर रोते पिता को छोड़ गयी थी
जाते समय हाथ हिलाते आँखों में
आँसू लिए छोटे भाई-बहनों को छोड़ गयी थी
मुझे दूर जाते
दूर तक देखती एक नहीं
कई जोड़ी निगाहें छोड़कर गयी थी मैं
बरसों बाद लौटने पर
बदले हुए गाँव में अपना
बीता बचपन फिर
गाँव खोजती हूँ
खुद अपने-आप से पूछती हूँ
कि और क्या छोड़कर गयी थी मैं
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मासूम चेहरा
मासूम-सा चेहरा
जिसे देखा मैंने तो बस देखती रही
उस चेहरे पर सागर की तरह
शांत, गहरी आँखें
बहुत बारीकी से देखती हैं
दुनिया के रंग-ढंग
यूँ ही तो कहती नहीं वो आँखें
हर किसी से अपनी बातें
टटोलती रहती हैं सामने वाले की
समझ के परदों पर कोई धूल तो नहीं
परखती हैं उस मासूम से चेहरे की निगाहें
सामने वाले की निगाहों को
फिर निश्चिंत होकर
अपने होठों को देती हैं इजाज़त
करती हैं इशारे
कि कहो जो भी कहना है
सजाये जाते हैं फिर बातों के गुलदान में
अनुभवों के तरह-तरह के किस्से
सोच-समझ के मिलान का सुकून
उस मासूम-से चेहरे की आँखों में
झलकने लगता है
कि सच में हम जैसे हैं
वैसा ही हमें कोई तो समझता है
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परतें अनदिखी
अपने मन से उतार कर
जब तुमने खोला था दुःखों का गट्ठर
तो देखा था मैंने
जमी हुई परतों में धूल के पीछे
वो तमाम बार खोलने और बंद करने की कशमकश
भागना चाहते रहे होगे तुम
अपने सिर पर लिए हुए
ज़िन्दगी के बोझ का गट्ठर
चुपचाप सहेज ली होगी कभी
अपनी ये घुटन भरी गठरी
किसी को खोलकर परत दर परत
दिखाया भी नहीं शायद मन का बोझ कभी
अच्छा ही किया तुमने
जो मेरे लिए ही सही
रख दिया खोलकर बोझिल किस्सों का गट्ठर
हमसफ़र हूँ तुम्हारी
हमराज़ भी हूँ
हाँ, कभी तुम भी समय निकालकर
देख लेना वो धूल भरी परतें भी
जो छिपी रहती हैं
मेरे मन के किनारों पर भी
हमेशा की तरह अनदिखी
– निरुपमा मिश्रा नीरू