गीत-गंगा
बरखा के स्वागत में स्त्री मन का गीत
बरखा की बूंदों ने
मीठा राग सुनाया है
भैया आयेंगे सावन में हमें लिवाने
पीहर से मनभावन यह
संदेसा आया है
आओ सखियों हो जाए कुछ
ढोलक-वोलक कजरी-वजरी
गीतों से हर दिशा गुंजा दें
ले आली हाथों में खंजरी
धाराधर के साथ धरा ने
पग थिरकाया है
द्वार खड़े हैं मेहंदी के दिन
झूलों के दिन सखियों के दिन
हरी हरी चूनर की जिद में
रुठी रूठी गुड़ियों के दिन
पुरवैया ने मन का दरवाजा
खड़काया है
चूड़ी, कंगन, मुंदरी, झुमके,
बाजुबंद, गलहार, करधनी
सब फीके हैं सब झूठे है
बिन बरखा के सुन ओ सजनी
रुनझुन रुनझुन पायल ने
हँसकर समझाया है
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नवगीत-
मौन रह कर भी भला यह कौन
मुझमे बोलता है
नर्म कोसी सिहरने रख उँगलियों के पोर पर
परस कर कहता सुनो,
थिरको न जब तक भोर हो
झींगुरों के बेसुरे सुर थम न जाएँ जब तलक
तब तलक गाओ न जब तक
पंछियों का शोर हो
सप्तरंगी रागनी
के स्वर निशा में घोलता है
सरगमों में टांक कर कुछ नेह भीगे सुर मधुर
छेड़ता है राग रसभीने
मधुरतम गीत के
स्पंदनों की ताल पर बहती हुई सी धार बन
सीचता है गाछ मुरझाई हुई सी
प्रीत के
तार की झंकार सा मन-वीथियों
में डोलता है
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नवगीत-
कितनी उजली
होती हैं धुंधली तस्वीरें
जल परियों-सी रहतीं
आँखों की नदियों में
धूप सिरजतीं
बर्फ़ बर्फ़ होती गलियों में
रंगों को पोरों पर रख
जो उड़ जाती है
ऐसी तितली
होती हैं धुंधली तस्वीरें
रंग-बिरंगी सीपें ज्यों
सूखी सिकता पर
चट्टानों पर हरी दूब की
जैसे झालर
मन की सूनी पगडंडी पर
‘अब’ से ‘तब’ की
अदला-बदली
होतीं हैं धुंधली तस्वीरें
रुक रुक कर कहतीं हैं
कहते कहते रुकतीं
हँसते हँसते रोतीं
रोते रोते हँसतीं
मुट्ठी में रखती हैं खुशबू
की परछाईं
बिलकुल पगली
होती है धुंधली तस्वीरें
– सीमा अग्रवाल