कविता-कानन
बदलती रहीं स्त्रियाँ
मेरे जीवन में
आती-जाती रही हैं
न जाने कितनी ही स्त्रियाँ
असंभव था मेरे लिए अकेले रख पाना
उन सारी स्त्रियों का लेखा-जोखा
तैयार कर पाना उन तमाम स्त्रियों के
मेरे जीवन में आगमन-प्रस्थान की सूची
मुझसे उन तमाम स्त्रियों ने प्रेम किया
हाँ, भले ही भिन्न रही हों स्त्रियाँ
भिन्न रहे हों उनके संस्कार
भिन्न रही हों उनकी सभ्यताएँ
और उनकी परंपराएँ
गाँव की रही हों या शहर की
देश की रही हों या विदेश की
कस्बाई रही हों या शाही
उतना ही प्रेम किया
उतनी ही सहजता से किया
उतनी ही व्याकुलता से किया
उतनी ही उत्तेजनाओं के साथ किया
उतनी ही गहराईयों में उतरकर किया
पर यह क्या
हक्का-बक्का भौचक्का हुआ जाता हूँ मैं
बतला नहीं सकता
आखिर उन स्त्रियों के लिए
प्रेम के क्या मायने रहें होंगे
वे आती जाती रहीं
ठीक वैसे ही जैसे
लोकतंत्र में बदलती है सरकारें
धरती पर बदलते हैं मौसम
दिन के बाद उतरती है रात
रात के बाद चढ़ते हैं दिन
साँप छोड़ जाते हैं अपने केंचुए
रसास्वादन कर भँवरें
छोड़ जाते हैं उदास फूल
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तुम्हें अभी मालूम नहीं!
बड़े शातिर होते हैं वे लोग
जो हमेशा ही प्रेम भरी
चिकनी-चुपड़ी बातें करते
आवश्यकता से अधिक ख्याल रखते
तमाम औपचारिकताओं के पुल बाँधते
ठीक वैसे ही जैसे
हमारे देश के नेता
बात-बात पर लोकतंत्र
और जनता के हितों की बातें करते हैं
तुम्हें अभी मालूम नहीं!
हाँ, तुम्हें अभी मालूम नहीं
यह सब भ्रम है तुम्हारा
कि वे लोग प्रेम करते हैं
तुम्हारे अंतः वस्त्रों की
एक झलक पाने को बेकरार
उनकी वहशी आँखों में
अपनी आँखें डालकर
क्या कभी देखा है तुमने
कभी सोचा है तुमने
आखिर प्रेम के पक्ष में
उनके क्या मायने हैं
गर हो सके तो
प्रवेश कर देखना कभी
उनकी तिलिस्मी नाचती आँखो में
स्वयं को
वे लोग
बस एक अवसर की तलाश में होते हैं
माकूल वक्त मिलते ही
तुम्हें खींच लायेंगे अपने बिस्तर पर
जबरन क्षत-विक्षत कर देंगे
तुम्हारी आत्मा तक को
जैसे अवसर मिलते ही
नोंच दिया जाता रहा है
यहाँ लोकतंत्र को
तुम अब तक बेखबर हो!
हाँ, तुम अब तक बेखबर हो
वक्त की विद्रुपताओं से
अपने समय के यथार्थ से
तुम्हें अभी मालूम नहीं
हम कैसे दमघोंटू वक्त में
यहाँ जिये जा रहें हैं
जहाँ प्रेम, रिश्ते, संवेदनाएँ, धर्म
और सरकार
सब कुछ तय करता है
हमारा बाज़ार
– परितोष कुमार पीयूष