कविता-कानन
बच्चे: पाँच कविताएँ
स्कूल की आधी छुट्टी होते ही
बच्चे निकलते हैं अपनी कक्षाओं से
हाथों में टिफिन लिए
अपने छत्तों से फूलों के लिए
निकलती मधुमक्खियों की तरह
बच्चे चलते-चलते खाते हैं
या खाते-खाते चलते हैं
मुश्किल यह फर्क करना
बच्चे रोटी तोड़ते और चबाते हैं
तो उनके पैर थिरकते हैं
जैसे मैदान के बीचो-बीच खड़े
बरगद पेड़ पर पत्तियाँ थिरकतीं हैं
गिलहरियाँ गाती हैं
और
नाचती हैं शाखें
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बच्चे
लड़ते हैं
दोस्त बनते हैं
दोस्त बनते हैं
लड़ते हैं
फिर दोस्त बन जाते हैं
बड़े
झगड़ते हैं, झगड़ते हैं
और झगड़ते रहते हैं
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बच्चे
भागते हैं सरपट
एक-दूसरे के पीछे
छुआ-छुर्इ खेलते हैं
खेलते हैं लुका-छिपी
गिरते हैं-उठते हैं
उठते हैं-गिरते हैं
रोते हैं-हँसते हैं
फिर भागने लग जाते हैं
हारते हैं, ताली बजाते हैं
ताली बजाते हैं, जीत जाते हैं
बड़े
भागते हैं डांवाडोल
भागते हैं और टांग खींच कर
गिरा देते हैं-
गिरा देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं
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बच्चे जल्दी नहीं थकते
और जब थककर हो जाते हैं चूर
आड़े-तिरछे
गोद, फर्श, बिस्तर
कहीं भी-कभी भी
लम्बी तान के सो जाते हैं
उन्हें देखो
नींद में हँसते नज़र आते हैं
बड़े
नींद में जागते रहते हैं
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बच्चे रोते हैं चीख-चीख कर
दहाड़ें मारकर
भीगे होते हैं दोनों गाल
पलकें
नाक
बुजुर्ग रोते हैं तो
उनके आँसू गालों को गीला नहीं करते
दिखार्इ नहीं पड़ते किसी को
चश्में की मोटी काँच के पीछे झिलमिलाती आँखें
सुनार्इ नहीं पड़ती कोर्इ आवाज़
– भास्कर चौधुरी