कविता-कानन
बचपन
कहाँ गया वो बचपन
जब ईश्वर से ज़्यादा
माता-पिता का विश्वास था
तर्क नहीं थे
संदेह नहीं थे
और ना ही था, क्यों?
सहजता और निश्चिन्तता,
श्रद्धा और विश्वास
जिसके लक्षण थे
जो आज दुर्लभ हैं
आज है
आत्मनिर्भर बचपन
यानि
बाल सुलभ सहजता,
लगाव और विश्वास से शून्य
पूर्णतया अनिश्चिंत
मासूमियत को नकारते,
परिपक्वता दर्शाते बच्चे
और हम ख़ुश हैं कि
हमारे बच्चो में
समझदारी आ गई है।
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सत्य
सत्य जानना हो
तो उसके क़रीब जाना होगा
सत्य चलकर तुम्हारे पास नहीं आयेगा
जो चलकर तुम्हारे पास आयेगा
वह झूठ होगा
या अधूरा सच
और हाँ
जो दौड़कर तुम्हारे पास आयेगा
वह तो पुर्णतः असत्य ही होगा
महा झूठ होगा
और यह भी सुनिश्चित है कि
जो तथ्य तूफ़ान की तरह
उड़कर तुम तक पहुँचेगा
वह विशुद्ध प्रपंच ही होगा
निरी दुष्कल्पना
मिथ्यारोपों का भंडार
किसी की चरित्र हत्या
अतः यह तूफ़ान गुज़र जाने दो
फिर जाकर नज़दीक
गौर से देखो
पूर्वाग्रहों से मुक्त
नज़र आयेगा तुम्हें
सत्य
पूर्णतः निर्दोष,
अकलुष, अमर्त्य
– महेश शर्मा