गीत-गंगा
बंजारे बिचारे
रेखा सुनहरी उग रही
क्षितिज के ललाट पर
उबटन लपेटा जा रहा
डूबती-सी रात पर
डुबकियाँ लेते सितारे।
रात का अंतिम प्रहर
जग रहे ज्योति के ऋषिवर
रंग रहीं रश्मियाँ
मुस्कान की लाली अधर पर
कड़े चांदी के उतारे।
ओस की बूदें झरीं
परदे हटा कर देखना
गगन से है धूप उतरी
दूधिया आँचल पसारे।
बैठ पोखर के किनारे
धो रहा मुँह जागरण
अब शुरू होगा यहाँ
जिंदगी का व्याकरण
दलित कन्या साँवरी
गलियारे बुहारे।
बन रहीं हैं रोशनी से
झमझमाती बस्तियाँ
फाड़ फेंकी यायावरों की
सैकड़ों ही अर्जियाँ
आवास की चाहत लिए
मर मिटे बंजारे बिचारे।
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अब कहाँ ढूँढ़ने जाएँ?
गुस्साया-सा सूरज दहका
धरती बनी अंगीठी
ऋतुरानी की कहीं खो गई
हीरे जड़ी अंगूठी
कहो मित्र!
अब कहाँ ढूँढ़ने जाएँ?
राख लपेटे घूम रहा है
पगलाया भूगोल
रद्दी के संग बेच दिए सब
रतन बड़े अनमोल
शीर्ष पुरुष प्रश्नों में उलझे
चलो मित्र सुलझाएँ।
अग्निवाण से किए जा रहे
सप्त सिंधु का मंथन
सेतुबंध रामेश्वर वाले
राम कहाँ हैं लक्ष्मण
पानी में जल रहे जंतु हैं
कैसे किसे बचाएँ!
आँसू से झर रहे हिमानी
फटी पड़ रही ज्वाला
बौराया-सा पवन कचोटता
दिवा-रात्रि मतवाला
चलो मित्र!
उन्मत जगत के
हम उन्माद मिटाएँ।
– डॉ. मनोहर अभय