कविता-कानन
प्रेम
प्रेम एक भावना है
समर्पण है, त्याग है
प्रेम एक संयोग है
तो वियोग भी है
किसने जाना प्रेम का मर्म
दूषित कर दिया लोगों ने
प्रेम की पवित्र भावना को
कभी उसे वासना से जोड़ा
तो कभी सिर्फ उसे पाने से
भूल गये वे कि प्यार सिर्फ
पाना ही नहीं खोना भी है
कृष्ण तो भगवान थे
पर वे भी न पा सके राधा को
फिर भी हम पूजते हैं उन्हें
पतंगा बार-बार जलता है
दीये के पास जाकर
फिर भी वो जाता है
क्योंकि प्यार
मर-मिटना भी सिखाता है।
************************
तुम्हें जीता हूँ
मैं तुम्हें जीता हूँ
तुम्हारी साँसों की खुशबू
अभी भी मेरे ज़ेहन में है
तुम्हारी आँखों की गहराईयाँ
अभी भी उनमें डूबता जाता हूँ
तुम्हारी छुअन का एहसास
अभी भी मुझे गुदगुदाता है
तुम्हारे केशों की राशि
अभी भी मेरे हाथों में है
तुम्हारी पलकों का उठना और गिरना
अभी भी मेरी धड़कनों में है
तुम्हारे वो मोती जैसे आँसू
अभी भी मेरी आँखों में हैं
तुम्हारा वो रूठना और मनाना
सब कुछ मेरी यादों में है
नहीं हो तो सिर्फ तुम
पर क्या हुआ
तुम्हारे वजूद का एहसास
अभी भी मेरी छाया में है
क्योंकि मैं तुम्हे जीता हूँ।
– कृष्ण कुमार यादव