कविता-कानन
प्राण रस
जैसे कलाकार की कूँची से चित्र
का उभर आता है रंग
सूर्य की किरणों से खिलते हैं
फूल के पटल
वैसे ही
हमारी कोशिकाओं में बहता जलज
जीवन प्रणाली है
जल के बिना नहीं पूरा होता
कोई संकल्प
कोई अनुष्ठान
भीतर की अव्यक्त शक्ति है
जल
व्यक्त सृष्टि का बीज भी
जहाँ रहता है जल सदा
बनी रहती है अग्नि भी वहीं
क्षुधा है अग्नि
पेट की
मन की
बुद्धि की
परितृप्ति है जल अग्नि की
समष्टि चेतना का अविछिन्न
प्रवाह हैै जल
कराहते समय में
सूरज के डूबने के बाद भी
जागृत कर संवेदना को
करें हम संरक्षण
प्राण रस का
जल का
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कहाँ हूँ मैं
उस साँझ की
गहराती लालिमा के बीच
अपनी जड़ उंगलियों से
झोपड़ी के पुआल पर रखी रोशनी की डिबिया बुझाई
बुदबुदाई
कहाँ हूँ मैं
औंधा चाँद अब पलंग पर
सोचने लगती वह
प्रांगण के आम की डाल पर पत्तों में घोंसलें हों
चिड़िया और मैना गुनगुनाती हो
महकता हो गुलाब, मोगरे-सा प्रांतर
कभी खिड़की से फेंक दूँ दाना
उतर आये गौरैया कबूतर तोता जैसे
आँगन बन जाये सारा गगन
अन्याय की ठंडी जमीन पर
लौट आई थी
बुदबुदाई
कहाँ हूँ मैं
वृक्ष के पत्तों में खोजती है एक छोटा-सा घर
घर का न होना जैसे
खिड़की के बाहर बदलते दृश्यों का
न रहना है
अव्वल तो घर में खिड़की का न होना
घर का न होना है
मशीन की गति से निश्चय किया उसने
वह तलाश करेगी
खिड़की के बाहर आकाश में अपना घर
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दिशाहीनता
किसी बहते हवा के प्रतिकूल
किसी सत्य की बुनियाद पर ठहर कर
शिव धनुष का टूटना
महज़
शौर्यशाली घटना नहीं थी
टूटी थीं
पीढ़ियों की अहमन्यताएँ,
शस्त्रीकरण का दंभ,
क्षीण होते संकल्प,
गहरे होते परिताप
और
चिह्नित करना था कृषि-कर्म
के संघर्ष को
मिट्टी में निहित उर्वराशक्ति
हरियाली चादर ओढ़ा देती खेतों को
बालक-सा कृषक
इस उपहार से घर-आँगन भर लेता
श्रम बिंदुओं से मुखर हो
खेत-खलिहान हो जाते
अक्षयपात्र
जहाँ सौंदर्य वहाँ डर भी
शस्त्रीकरण में बदलने लगा काल
मलीन हुआ चेतना का ताल
एक नई आँधी
ले आयी
श्रमयज्ञ से पलायन की दहलीज़ पर
दिशाहीन सोच
राजनीति की बलिवेदी पर
बची रह गयी अब
उदासीनता,
शोषण,
बेगारी,
भूमिहीनता,
आत्महत्याएँ,
कृषक संस्कृति का अंतिम संस्कार
– डॉ. उषारानी राव