कविता-कानन
प्रकाश
सावन में,
बदली भरी रात को
अमावश के चाँद ने
सजाया था।
काली चादर
दूर-दूर तक पसरी थी;
तभी देखा
चादर के बीच से,
एक रास्ता-सा बन रहा है
जुगनुओं ने खींच दी है
प्रकाश की लम्बी लकीरें।
पहचान
घरित्री पर
जहाँ-तहाँ रत्न बिखरे पड़े हैं
कहीं हँसते हुए,
तो, कही रोते हुए
कहीं मखमल की मुलायम गद्दी,
तो कहीं सड़क के फुटपाथ पर,
सोते हुए,
सबके अंदर है
हीरे जैसी चमक…
हम इसे जान नहीं पाते,
अपने बच्चों को
हम पहचान नहीं पाते।
अपने बच्चों को हम
पहचान नहीं पाते।।
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आसमान-सा कमरा
भौतिकता के इस,
आपाधापी भरे दौर में
सबके भीतर
आसमान-सा फैला
कमरा है।
जिसे
आधुनिकता के साधनों से,
भर लेने की होड़ है।
लेकिन, इन्हें पता नहीं,
मशीनों को जुटाने से
यह आसमान-सा फैला
कमरा, नहीं भरता
यह भरता है,
चराचर में फैले
प्रेम की सौंधी महक से…
प्रेम की सौघी महक से।
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विकास
विकास के बहुत सारे दावे
कर चुका है आदमी
बन रही है योजना
अब तो
मंगल ग्रह पर बस्ती बसाने की
लेकिन
पेट भरना भी क्यों मुश्किल है?
समझना
अभी भी बाकी है।
भौतिक साधनों को जुटाने के दौर में
यह सवाल आजकल
कोई मायने नहीं रखता
भले ही कचरे की ढेर से
निकाल कर सड़े-गले ब्रेड को
आदमी है पेट भरता।
– आदित्य अभिनव