कविता-कानन
पोस्टर
आपने देखे तो होंगे
पोस्टर
लगे हुए
शहर की दीवारों पर,
चौराहों पर टंगी
फूहड़ आकार वाली होर्डिंग्स पर,
या फिर
पुराने जमाने के
सिनेमाघरों के बाहर।
जनतंत्र के तमाशे के समय भी
जब इनकी बाढ़ सी आ जाती है।
इन पोस्टरों में अक्सर
एक अदामी होता है
अपने चेहरे पर सौम्यता चिपकाए,
जब कि वह लम्पट होता है
एक नंबर का।
कई बार वह आदमी
हाँथ भी जोड़े होता है
भीतर ही भीतर
दांत पीसता हुआ।
बेबात आपको मुबारकबाद
या धन्यवाद देता,
यही आदमी
जो आमने सामने मिल जाने पर
आपको पहचानने से भी
इंकार कर देगा।
कुछ पोस्टरों में
एक औरत भी होती है
इसी आदमी की लंपटता का शिकार।
वह मुस्कराने का
जोरदार अभिनय करती
रोती सी लगती है
और भीड़ उसका रोना सुन कर
तालियां बजा रही होती है।
मैं अब भी
समझने की कोशिश कर रहा हूँ
पोस्टर कौन है
तालियाँ बजाती भीड़
या फिर दीवार पर चिपकी
वह औरत।
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हरी दूब
एक दिन जरूर
सूख जातीं हैं
होंठों पर होंठों से लिखी
तमाम कविताएं,
हरी दूब की जगह
बिछ जातीं हैं
संगमरमर की कालीनें
और एक दिन जरूर
सारे प्रेम पत्र
जिंदगी के बही खातों के नीचे
दब कर खो जाते हैं।
पर फूलों का खिलना
जारी रहता है
और हरसिंगार के नीचे
मोतियों का बिखरना भी
सांझ ढले।
होंठो से होंठो पर
लिखी ही जाएंगी फिर से
नई कविताएं और
जिंदगी के बही खातों के नीचे से
खुशबू की तरह
उड़ जाएंगे
प्रेम पत्र,
हरी दूब
उग ही आएगी एक दिन
जिद कर के
संगमरमर की पट्टियों के बीच से।
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आंधियाँ
आंधियाँ
छुपी रहती हैं
न जाने कहाँ
ऋतुओं के उतार चढ़ाव के बीच,
और झपट पड़ती हैं
किसी धूसर सांझ को
जब आसमान हो रहा होता है लाल
और सूरज भी कुछ शिथिल सा।
इन आंधियों का भी सारा जोर
रहता है उन्ही पर
जिन्हें नहीं मंजूर
सिर झुकाना
भले ही शर्त हो
टूट जाने की।
मेरे भीतर भी
कुछ आँधियाँ अक्सर
छटपटाती हैं जोर से
और मैं
टूट जाने के डर से
सिर झुकाए खड़ा रह जाता हूँ
यह जानते हुए भी कि
यह एक अंतहीन सिलसिला है।
– श्री विलास सिंह