कविता-कानन
पुकार
दनदनाती गोलियाँ
ख़ून में उतरीं
दो साँसें टूटीं
कच्ची दीवारें…बहरी हो गयीं
चार आँखें
आसमान ताकती रहीं
हरी चूड़ियाँ
ग़ुलाम हवा को पार करके
सालों माप गईं
सुनो!
इस पार से उस पार तक
उठती है
पुकार कोई
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रोटी के आगे
झुलसते आसमान के नीचे
सिर में सूल चुभती है
रेंगता पसीना
और मिट्टी की चिप-चिप
दिमाग में झुनझुनी पैदा करते हैं
पर चूल्हे की लपट
पाँव खड़े रखती है
रोटी के आगे
आदमी….विचार फूँक सकता है।
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थोड़ा लहू
मूंडी हुई सरसों के
तने हुए नाखून
चप्पलों से फिसल कर
पगथली में जा लगते हैं
खाल के साथ
थोड़ी मिट्टी
थोड़ा लहू
आने वाली
फसल
जड़ पकड़ रही है।
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पगडंडी
साँझ भरी धूप में
सरकंडे तप रहे हैं
आमों से बौर चुरा कर
घंटे को पीठ दिखाती
नाचती हुई पगडंडी
चुपके से निकलती है
वो पत्थर बन जाती है
आगे चल कर
जंगल हो जाती है
रात को
मोर बन कर बोलती है
– शर्मीला