गीत-गंगा
पिता
कैसे दुख की निशा जागती
मेरे जीवन में
जब सूरज बन मुझमें रोज
निकलते रहे पिता
माना यह दिखते कठोर हैं
पर मन से कोमल
लाख मुसीबत आई पर
रहे हिमालय का बल
गंगा जल बनने को ख़ुद में
गलते रहे पिता
मैं मिट्टी था, जिसे उन्होंने
मूरत में ढाला
मंजिल, जीत मिली मुझको पर
मिला उन्हें छाला
मुझे ढालने, तरह-तरह से
ढलते रहे पिता
पिता हमेशा रहे बाँटते
मगर नहीं रीते
मेरे सुख की चिंता में ही
देखा है जीते
रुके नहीं जीवन के पथ पर
चलते रहे पिता
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नदी
थककर चूर पड़ी कोने में
मुझको दिखी नदी
जिसमें मन्नत के दीपों को
जलते देखा है
आज उसी को पॉलिथीन उगलते
देखा है
भूल गये आखिर कैसे हम
नेकी और बदी
काट नदी की सौ बाहों को
कहाँ हृदय रोया
विजय नदी पर पायी लेकिन
क्या-क्या ना खोया
कब पिसने का दर्द समझते
रचते बस मेहँदी
नई सदी विकसित होने की
ओर बढ़ रही है
उन्नति के जो नित्य नए सोपान
चढ़ रही है
लेकिन क्या सच देख पा रही
कैसे बढ़ी सदी
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हम सपनों के गाँव में
घूम रहे
भाषणबाजी सुन
हम सपनों के गाँव में
जिसके
जो मन भाया वैसा
गीत सुनाती आयी सत्ता
उजले भालू
शहद चूसते
जन के हिस्से सूखा छत्ता
नाच रहे हम
सुन ता-थैया
घुँघरू बाँधे पाँव में
दूध जलाया
छाछ न पीता
केवल रही कहावत बनकर
जनता बड़ी
दुधारू गैया
दूहे सत्ता रूप बदलकर
अंतर भूल गया
मूरख मन
मधुर कूक औ काँव में
जो जज्बात जगे तो
इक-दिन
दो-दिन तक हड़ताल चल गई
आश्वासन की
आँच देखकर
जनता बोली दाल गल गई
अपनी-अपनी
दिक्कत सबकी
लौटे अपने ठाँव में
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होगा विकसित देश
होगा विकसित देश
सिर्फ विज्ञापन कहता है
राम भरोसे भोजन, कपड़ा
शिक्षा औ आवास
अर्थ-शास्त्र भी औसत धन को
कहने लगा विकास
सम्मानित समुदाय
जेठ को सावन कहता है
जब-जब बात उठी है
बस्ती कब होगी मॉडर्न
तब-तब मुद्दा बनकर आया
पिछड़ा और सवर्ण
क्या हालता है,
मुद्रा-दर का मंदन कहता है
जिसने सपने कम दिखलाए
हुआ वही कमजोर
तकनीकों ने संध्या को भी
सिद्ध किया है भोर
सब हल होगा
बार-बार आश्वासन कहता है
– राहुल शिवाय