गीत-गंगा
पागल हुआ रमोली
राजकुँवर की
ओछी हरकत
सहती जनता भोली,
बेटी का
सदमा ले बैठा
पागल हुआ ‘रमोली’।
देह गठीली
सुंदर आँखें
दोष यही ‘अघनी’ का,
खाना-खर्चा
पाकर खुश है
भाई भी मँगनी का।
लीला जहर
मरेगी ‘फगुनी’
उठना घर से डोली।
संरक्षण में
चोर-उचक्के
अपराधी घर सोयें,
काला-पीला
अधिकारी कर
हींसा दे खुश होयें।
धंधे सभी
अवैध चलाते
कटनी से सिंगरौली।
जेबों में
कानून डालकर
प्रजातंत्र को नोचें,
करिया अक्षर
भैंस बराबर
दादा कुछ ना सोचें।
बोलो! खुआ
लगाकर दागें
घर में घुसकर गोली।।
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सूरज की हरवाही
जेठ तमाचे
सावन पत्थर
मारे सिर चकराये,
माघ काँप कर
पगडौरे में
ठण्डी रात बिताये।
भूखे पेट
बिहनियाँ करती
सूरज की
हरवाही,
हारी-थकी
दुपहरी माँगे
संध्या से चरवाही।
देर रात तक
पाही करके
चूल्हा चने चबाये।
चिंताओं से
दूर झोंपड़ी
देकर ब्याज पसीना,
वक़्त महाजन
मूलधनों में
जोड़े लौंद महीना।
रातों को दिन
गिरवी धरकर
अपने दाम चुकाये।
मंगल में
बसने की इच्छा
मँगलू मन से कूते,
ममता के
हाथों गुड़पानी
जीवन सुख अनुभूते।
हाथ नेह का
फिरे पीठ पर
अंक लिये दुलराये।।
पगडौरे= फुटपाथ
पाही= दूर दराज की खेती
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भोगा हुआ अतीत
जंगल-चिड़ियाँ,
फूल-पत्तियाँ,
नाव-नदी
पर गीत लिखूँगा।
भूख-गरीबी, शोषण दाबे,
निकलूँ तब!
परतीत लिखूँगा।
संत्रासों की उड़ी
नींद को
लिये गोद में
बैठीं रातें,
मुस्कानों की
सिसकी कहतीं
बनती
जीभ रहीं फुटपाथें।
आमद बढ़े
ख़ुशी की थोड़ा
ईंटे वाली भीत लिखूँगा।
आरक्षित हैं
लोग वहीं पर
लगे हाथ
न दिखे तरक्की,
चढ़ी मूड़ पर
नई योजना
गई पुरानी गुल कर बत्ती।
चोंच-दबाये
दाना डाले
बगुला भक्ति प्रीत लिखूँगा।
छीन धरा
को नहीं छोड़ती
हवा रुन्धती
रकवा पूरा,
सहमी-सहमी
लाचारी है
बात-बात पर
बल्लम-छूरा।
वर्तमान से
जूझा हूँ फिर
भोगा हुआ अतीत लिखूँगा।।
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स्वाभिमान का जीना
लीकें होतीं
रहीं पुरानी
सड़कों में तब्दील,
नियम-धरम का
पालन कर हम
भटके मीलों-मील।
लगीं अर्जियाँ
ख़ारिज लौटीं
द्वार कौन-सा देखें,
उलटी गिनती
फ़ाइल पढ़ती
किसके मुँह पर फेंकें।
बियाबान का
शेर मारकर
कुत्ते रहे कढ़ील।
नज़र बन्द
अपराधी हाथों
इज्जत की रखवाली,
बोम मचाती
चौराहों पर
भोगवाद की थाली।
मुँह से निकले
स्वर के सम्मन
हमको भी तामील।
मल्ल-महाजन
पूँजी ठहरी
दाबें पाँव हुजूर,
लदी गरीबी
रेखा ऊपर
अज़ब-अज़ब दस्तूर।
स्वाभिमान का
जीना हमको
करने लगा ज़लील।
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अपने जैसा होना
मैं पीतल औरों का
चिन्तन
मुझे बनाए सोना,
मैं तो केवल
चाह रहा हूँ
अपने जैसा होना।
अबके साल समय में
पल-पल
घर के अर्थ बदलते,
देने वाले
हाथ काटते
बैसाखी को चलते।
फल के भी हैं
अन्दर काँटे
परिणामों का रोना।
पाँवों के नीचे
की धरती
पकड़े पर भी सरके,
खड़े देखते
रहे तमाशे
अँगना, देहरी, फरके।
भितियों से
करवाती छानी
मुझ पर जादू-टोना।
मैंने उलटी
दिशा चुनी है
पद चिह्नों से हटकर
हवा रोकती
बढ़ना मेरा
स्वर लहरी को रटकर।
केवल कोरे
आदर्शों को
कन्धों पर क्या ढोना।।
– रामकिशोर दाहिया