कविता-कानन
परम्परा और मूल्य
एक भीड़ के बीच खड़ा हूँ मैं
अपनी मान्यताओं का लिए झोला
लोग पैर पर पैर रख
कुचलते हुए, रौंदते हुए बढ़े जा रहे हैं आगे
एक सर्वसम्मत साजिश का शिकार होकर
परम्परा को कर दिया है बाहर इस भीड़ ने
बढ़ती जा रही हैं दिनों दिन यह भीड़
घटते जा रहे हैं दिनों दिन मूल्य
अजीब तरह के नारों, भाषणों
और दिशाहीन विरोध के बीच
लोग हो रहे हैं शिकार गोलियों के
सियासतदानों ने इस भीड़ को
बना रखा है मुद्दा
इसी बहाने चमक रहीं हैं सियासत
यह भीड़ जिसकी कोई अगुवाई नहीं है
यह भीड़ जो बढ़ती जा रहीं हैं
यह भीड़ खत्म कर देगी एक दिन
परम्पराओं और मूल्यों की
धीरे-धीरे मंद होती रोशनी को
होकर शिकार सियासत का
मैं कहना चाह रहा हूँ इस भीड़ को
जो उगाना चाहती है बारूद
उपजाऊ ज़मीनों पर
परम्पराओं और मूल्यों को बाहर कर
खड़ा करना चाहती हैं जंगल
लीलना चाहती है भविष्य
पर मेरी आवाज़ इस भीड़ के मजबूत पैरों
और कानभेदी शोर के बीच दबकर
हो चुकी है ग़ायब
एक गूँगापन और बहरापन कर रहा हूँ महसूस
शायद किसी दिन इस भीड़ के बीच
मारा जाऊँगा मैं भी
परम्पराओं और मूल्यों के इस झोले के साथ।
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एक खाली काग़ज़
एक खाली काग़ज़ की व्यथा को
महसूस नहीं कर पाते शब्द
उस पर गुज़रती कलम
कुरेद नहीं पाती गहराई
उसकी लकीरों की उलझनें
कर नहीं पातीं सवाल
एक अदृश्य अनचाहे दर्द को सहता है काग़ज़
वह शब्दों की घृणा को सोखता है भीतर
कलम के भारीपन को सहकर भी
रहता है सपाट और तना
मैंने कई दिनों से नहीं लिखी कविता
सिर्फ देखता रहा हूँ काग़ज़ को
करता रहा हूँ महसूस उसका दर्द
बिना कविता के।
– संजय छीपा