कविता-कानन
पतंग
इंतज़ार करती मैं
बड़ी बेसब्री से,
इसी दिन का, वर्ष भर
नीले, पीले, लाल और गुलाबी,
लिए अनगिनत रंगों के स्वप्न
अपने हृदय में
भरती मैं ऊँची उड़ान,
होकर बेख़ौफ़
अरमानों के आसमान पर,
उम्मीदों के धागों से बंध
प्रेम के मांझे से लिपटकर,
करती मैं सूर्य स्नान
और तुम भी, देखो न
देते हो कितनी ढील मुझे
खोजने अपने
अस्तित्व को
नहीं झुलसा पाती
दोपहर की कड़ी धूप भी मुझे
पर शाम होते होते,
होती हूँ मैं
नि:शब्द और निराश
जब सुनाई पड़ते, केवल
काटो-काटो!
जैसे क्रूर शब्द
और मैं लौट आती हूँ
बिना कटे, बिना फटे
बिना टूटे,
अपने समूचे अस्तित्व को समेटे,
यथार्थ के धरातल पर
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नव वर्ष
उदित हुआ प्राची से प्रभाकर
सप्त अश्व रथ पर हो सवार,
कनकमयी हुई धरा अपार
ज्योतिर्मय अब हुआ संसार।
स्वर्ण आभायुक्त सुख उतार
स्निग्ध रश्मियां फैला अपार,
रवि किरण से तम गया हार
ज्योतिर्मय अब हुआ संसार।
नवीन भोर हो, नवीन वर्ष हो
तम पर उज्ज्वल स्वर्ण प्रकाश हो,
खिले पुष्प नित नव्य चमन में
ज्योतिर्मय अब हुआ संसार।
रोग मिटे अब, शोक हटे सब
नवल प्रभात दे दिव्य उपचार,
जीवन वाटिका हो मंगलमय
ज्योतिर्मय अब हुआ संसार।
– नीता व्यास