कविता-कानन
पचास साल बाद
मैं वहीं हूँ
जहाँ तुम आए थे
चमरौला जूता ठीक कराने
“छुट्टे पैसे नही हैं” कह कर चले गए थे
पचास साल पहले।
आज चमचमाते जूतों पर
पॉलिश कराने आए हो
पचास साल बाद।
भरी है जेब
हजार-हजार के हजारों नोटों से
छुट्टा पैसा एक नहीं
माँगने की जुर्रत भी कौन करेगा?
तुम्हारा आना ही बहुत है यहाँ
जमीन पर टिकते कहाँ हैं पाँव
हवाई उड़ाने भरते हो
मैं रोज वहीं से देखता हूँ
जहाँ
चमरौला जूता ठीक कराने आए थे
पचास साल पहले।
जूते गाँठना मेरा धँधा है
मरे डंगरों की खाल उतारना भी।
गाय के माँस की गंध से भड़की भीड़ के सारथी!
तुम्हारे घोड़े
घास नहीं
आदमी की हड्डियाँ चबाने लगे हैं
इन्हें अस्तबल में रखना जरूरी है।
बीफ और मीट का स्वाद जान गए हैं
वैष्णव और मांसाहारी
ऐसा न हो कि
भगदड़ में तुम्हारे जूते की कील उखड जाए
लहू-लुहान हो जाएँ पैर
अब नहीं मिलेगा
मुझ जैसा ठोक-पीट करने वाला
पचास साल बाद।
*************************
गर्वीली चट्टान
तोड़नी है
खरगोश की तरह छलाँगें मारते
हजार-हजार प्रपातों को
कोख में दबाये खड़ी चट्टान
गर्वीली! अनुर्वरा!!
तोड़नी हैं
जेबरा की धारियों-सी सड़कों पर पसरी
गतिरोधक रेखाएँ
अनसुलझे प्रश्नों का जाम बढ़ाने वाली
लाल, नीले, हरे रंग के सिग्नल की बतियाँ
अनचीन्हीं! अवाँछित!!
तोड़नी हैं अंधी गुफाएँ
जहाँ कैद हैं गाय-सी रम्भाती मेघ बालाएँ
दुबले होते दूर्वादल
मनाना चाहते हैं श्रावणी त्यौहार
मधुपूरित! अपरिमित!!
मित्रो! लाओ कुदाल, खुरपी, फावड़े
और बुलडोजर
समतल करनी है
ऊँची-नीची जमीन
ऋतम्भरा-सी झूम उठे हरितमा
पुष्पाभरणों से
सुसज्जित! विभूषित!!
– डॉ. मनोहर अभय