गीत-गंगा
पगडंडी
सब चलते चौड़े रस्ते पर
पगडंडी पर कौन चलेगा?
पगडंडी जो मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत केवल-केवल
खेतों से और गाँवों से
इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?
जहाँ केन्द्र से चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में
मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?
कार-क़ाफिला, हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा
कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?
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देवी धरती की
दूब देख लगता यह
सच्ची कामगार
धरती की
मेड़ों को साध रही है
खेतों को बाँध रही है
कटी-फटी भू को अपनी-
ही जड़ से नाथ रही है
कोख हरी करती है
सूनी पड़ी हुई
परती की
दबकर खुद तलवों से यह
तलवों को गुदगुदा रही
ग्रास दुधरू गैया का
परस रहा है दूध-दही
बीज बिना उगती है
देवी है देवी
धरती की
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चिड़िया और चिरौटे
घर-मकान में
क्या बदला है,
गौरेया रूठ गयी
भाँप रहे बदले मौसम को
चिड़िया और चिरौटे
झाँक रहे रोशनदानों से
कभी गेट पर बैठे
सोच रहे अपने सपनों की
पैंजनिया टूट गयी
शायद पेट से भारी चिड़िया
नीड़ बुने, पर कैसे
ओट नहीं कोई छोड़ी है
घर पत्थर के ऐसे
चुआ डाल से होगा अण्डा
किस्मत ही फूट गयी
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हिरनी-सी है क्यों
छुटकी बिटिया अपनी माँ से
करती कई सवाल
चूड़ी-कंगन नहीं हाथ में
ना माथे पर बैना है
मुख-मटमैला-सा है तेरा
बौराए-से नैना हैं
इन नैनों का नीर कहाँ-
वो लम्बे-लम्बे बाल
देर-सबेर लौटती घर को
जंगल-जंगल पिफरती है
लगती गुमसुम-गुमसुम-सी तू
भीतर-भीतर तिरती है
डरी हुई हिरनी-सी है क्यों
बदली-बदली चाल
नई व्यवस्था में क्या, ऐ माँ
भय ऐसा भी होता है
छत-मुडेर पर उल्लू असगुन
बैठा-बैठा बोता है
पार करेंगे कैसे सागर
जर्जर-से हैं पाल
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कविता
हम जीते हैं
सीधा-सीधा
कविता काट-छाँट करती है
कहना सरल कि
जो हम जीते
वो लिखते हैं
कविता-जीवन
एक-दूसरे में
ढलते हैं
हम भूले
जिन खास क्षणों को
कविता याद उन्हें रखती है
कविता
याद कराती रहती है
वे सपने
बहुत चाहने पर जो
हो न सके
हैं अपने
पिछड़ गए हम
शायद, हमसे
कविता कुछ आगे चलती है
– अवनीश सिंह चौहान