कविता-कानन
नैनों की भाषा
‘देव’ तुम्हारा मौन…
मुझसे बहुत कुछ कह जाता है
ठीक वैसे ही
जैसे तुम समझ जाते हो
मेरे खामोश शब्दों को
नैनों की ये भाषा
तुमने ही तो मुझे बताई है
कितना कुछ कह जाते हो तुम
ना कुछ कहते हुए भी
जब कभी भी
बिखराव महसूस करती हूँ
मेरे हाथों पर
तुम्हारी मजबूत पकड़
मुझे फिर से संभाल लेती है
मैं खुद को वैसे ही
महफ़ूज पाती हूँ
जैसे कोई लता
किसी वट-वृक्ष से लिपट जाती हो
हाँ…तुम वही वट-वृक्ष हो मेरे
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खुले दरवाजे
सिर्फ़ दो दरवाजे थे
एक ने मुझे और
दूसरे का मैनें स्वयं
त्याग कर दिया
खुले आसमान के नीचे
अपनी तन्हाइयों के साथ
ना जाने कब तक मैं
यूँ हीं बेमक़सद बैठी रही
जन्मों का रिश्ता
एक पल में टूट गया था
मैनें खुद ही स्वीकारा था
अपने आत्मसम्मान को
अपमान का एक घूँट भी
अब गंवारा नही था
फिर मैनें लड़खड़ाते क़दमों को
मजबूती से ज़मीन पर टिकाए
और बरसों के मोह को
एक घूँट में ज़हर की तरह पी लिया
सामने दुनिया की भीड़ थी
मगर मैं उस भीड़ का हिस्सा
नही थी….मेरा आने वाला कल
मुझे आवाज़ दे रहा था
और मैं उस तरफ़ बढ़ती चली गई
जिधर से आवाज़ आई थी
मैनें सच और झूठ के फासले को
एक साथ तय किया..सच मेरे साथ है
और झूठ दूर कहीं बहुत दूर छूट गया है
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प्रेम
मेरे शहर ने जब तेरे क़दम चूमे
हवाओं की धड़कन रुक गई
प्रकृति ने रुख बदल दिया
आसमान नें अपनी मुट्ठी खोली
और सितारों को तुम पर उड़ेल दिया
दो दिलों को मिलना है
ख़ुदा नें ये फरमान किया
कोई पहचान नही थी मगर
धड़के थे दो दिल साथ-साथ
आगाज़ था ये प्रेम का
जिसमें सब से जुदा एक दुनिया थी
जब मैं तुझ पर नज़्म लिखने लगी
शब्द भी मुस्कुरा उठे
मैं प्रेम लिखती रही और तुम
प्रेम जीते रहे..कागज़ पर
उभरते रहे वो बोल सारे
जो तुमसे कहने थे
और लिखने लगे थे हम दोनों
अपनी अपनी तक़दीरें
– रश्मि अभय