वो चेतावनी देते रहे,
कविता ने सच का साथ न छोड़ा
उन्होंने तलवारों को कविता का क़त्ल करने भेजा
तलवारों ने देखा,
वहाँ सफ़ेद पन्नों की ढेर पर एक काया बैठी थी
जिसके हाथों पर स्याही के कई निशां थे
और आँखों में जगमगाता प्रकाशपुंज
तलवार नतमस्तक हुईं
तलवारों ने वापस आकर उन्हें लताड़ा,
“हमे निहत्थे का क़त्ल करने क्यूँ भेजा?”
वो गुर्राये…”निहत्था…तुम्हें उसके हाथ में कलम नहीं दिखी!”
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काँच की दीवार
उन्होंने मुझे उस नदी में डुबकी लगाने को कहा
मैंने देखा नदी में हर तरफ़ नफ़रत की छाया है
मेरा गुनाह था हामी न भरना
उन्होंने मुझे कांच की दीवारों में चुनवा दिया
वो मुझे देख सकते हैं पर सुन नहीं सकते
मेरी आवाज़ उनतक नहीं पहुँचती
वो नफ़रत के शिखर पर जा पहुंचे हैं
सारे मूल्य नीचे छोड़कर
उन्हें और ऊपर जाना है…न जाने कहाँ तक!
कल रात टूटते तारे से
मैंने उनके लिए एक दुआ मांगी थी
नफरतों के लिए प्रेम की मन्नत
जाने कुबूल हो न हो!
– विनीता ए कुमार