कविता-कानन
नारी
ये जो मौन, मुस्कुराकर
रह जाती हूँ न
हँस कर उड़ा देती हूँ
तल्ख़ बातों को
नि:शब्द झेलती हूँ
चूभते-कटाक्षों को
बहा देती हूँ आँसूओं में
अदम्य इच्छाओं को
नोंचकर फेंक देती हूँ
सपनों के पंखों को
न….न…न…न
कतई नहीं ‘नारी’ हूँ
निम्न या कमतर हूँ
निरीह या कमज़ोर हूँ
बस इसलिए कि
शेष मुझी में है
स्निग्धता-तरलता
मेरे ही भीतर जीती हैं
मौज में संवेदनाएँ
आलोड़ित है मेरा ही उर
प्रेम-करूणा, दया-माया से
बीजवपन-पल्लवन करती
तुम्हारी जिजीविषा को
तुम्हारे सपनों की पतंग को
प्रेरित कर, उड़ान देती हूँ
ज़मीं से आसमां तक तुम्हें
नित नये आयाम देती हूँ
हाँ, अहंकार का रावण
जब लीलने लगता है न तुम्हें
हठधर्मिता से बलात्
संप्रभु बनना चाहते हो
मेरी ही सृजित सृष्टि की
खींच लेती हूँ डोर
दुर्गा-काली कहलाती हूँ
रणचंडी बन जाती हूँ
उभय-सत्ता में अपनी
अहम भागीदारी दर्शाती हूँ
************************
गुड़िया
मेरे मन के भीतर अब भी
रहती गुड़िया एक नन्ही-सी
जो बड़ों की इस चमकती दुनिया को
विस्मित होकर तकती है
उसके जी में जो आये
करना…कहना
वही करना/कहना चाहती है
वह मुँह में राम, छूरी बगल में
रख नहीं पाती है
अक्सर बड़ों की इस दोहरी दुनिया में
उलझ उलझ-सी जाती है
रिश्तों के मोल-भाव
सिक्कों में तौल नहीं पाती है
सच को झूठ, झूठ को सच
ये दाँव नहीं खेल पाती है
अच्छे को अच्छा, गंदे को गंदा
शुचि-मन को सुंदर कहती है
री बावली है बड़ी, मेरे भीतर की
ये नन्ही-सी गुड़िया
नित बस ठुमकती रहती है
– पूनम कतरियार