कविताएँ
नहीं बनती है कविता
ऐसी कितनी शामें गुज़री हैं
इस कमरे की दीवारों के साथ
आसमान देखते हुए
रंग बदलता आसमान
नीला आसमां सुर्ख़ होता
फिर सारे रंग उड़ गए हैं
रह गया है काला रंग
खिड़की से आती है बारिश
अपनी ठंडी उँगलियों से
छूती है मुझे
यह बरसती है
सुराख़ वाले घरों में
यह बरसती है
ऊँचे मकानों पर
बारिश में भीगी कुछ पंखुड़ियाँ
बारिश में भीगे कुछ शब्द
नहीं बनता फूल
नहीं बनती कविता
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सुबह हो गई
रात कहानी में सन्नाटा था
मेमना था, भेड़िया था
दिखाई देने के पीछे छिपी
काली मुस्कुराहट थी
भेड़िये का छल-कपट था
मक्कारी थी, अत्याचार था
और बच निकलने कि होशियारी थी
मेमने की मौत बाद
आया था डर
सुरक्षा का कवच लिये
हर अन्याय के सामने
चुप रहने का कलंक लिये
रात का सर झुका हुआ
पूरब से सूरज निकलता हुआ
क्या सुबह हो गई थी?
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आख़री सफ़्हा मौत है
मौत के बाद कुछ नहीं
फिर जीवन नहीं, ग़म नहीं, ख़ुशी नहीं
जिस हद तक दुनिया में उलझे हो
उतना ही मौत से ख़ौफ़
अपने को मुक्त रखना मुश्किल है
पर दरख्त बदलते हैं लिबास
और सांप अपनी केंचुली
अपने ‘में’ से निजात भी मुश्किल नहीं
पर मरने से पहले मारना नहीं
अंधविश्वास का न अँधेरा होगा
बंद आँखों में भी न डर होगा
न दुःख होगा
ज़िन्दगी की किताब का
आख़री सफ़्हा मौत है
मुझे यक़ीन है
मौत बाद कुछ भी नहीं
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सॉरी यार
तुम्हे याद है वो चट्टान
जिस पर बैठ कर
हम चाय पिया करते थे
तुम्हारे इस सवाल से
मेंरे पैर काँपने लगते है
जैसे ऊँचाई से गिरने का डर
मेंरे वजूद पर हावी हो जाता है
तुम मुझे भूल गयीं न?
एक पल की डबडबायी ख़ामोशी में
लहरों में देखती हूँ
टूटते सूरज को
कई बार छुपा लेते हैं हम उदासी
और दर्द को घोल देते हैं
दूसरे केमिकल में
झील अचानक सिकुड़ जाती है
एक लड़का दौड़ने लगता है
गिलहरी के पीछे
पकड़ना चाहता है उसे
समय के रेगिस्तान में
खो जाते हैं कई दृश्य
कुछ चीज़ें
एहसास के बाहर ऐसे बदलती हैं
कि हमें पता ही नहीं चलता
सारे दवाबों के बीच “मैं”
उससे पूछती हूँ अब स्टेशन चलें
नहीं तो तुम्हारी ट्रेन छूट जाएगी।
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दरख्त गिर जाने के बाद
आँगन का दरख्त गिर जाने के बाद
उजागर हो सकता था
कौनसा सच
जड़ों का खोखला होना
या मिट्टी की कमज़ोर पकड़
कुछ दिन सूखे पत्ते खड़खड़ाये
और फिर मिट्टी का हिस्सा बन गये
हर दर्द, हर दुख को देखने का
अपना-अपना नज़रिया
खिड़की दरवाज़ों ने होंठ सी लिये
– शहनाज़ इमरानी