नवगीत
1. स्वप्न की टूटी सिलन
पात झुलसा है दिवस भर
रात भर सुलगी पवन
टीसते पल-छिन विरह में
मावसी होती किरन
भाव के व्याकुल चितेरे
यूँ सजाते अल्पना
रूप की मादक छुअन से
है किलकती कल्पना
आहटों के दर्प बोझिल
स्वप्न की टूटी सिलन
हलचलों में अर्थ ढूँढें
थम गईं पगडंडियाँ
शब्द आवारा भटकते
बुन रहे हैं किरचियाँ
ढल रही इस साँझ के
बिम्ब देते हैं चुभन
2. सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
सो गए सन्दर्भ तो सब
मुँह-अँधेरे
पर कथा
अब व्यर्थ की बनने लगी है
गौढ़ होते
व्याकरण के प्रश्न सारे
रात
भाषा इस तरह गढ़ने लगी है
संकुचन यूँ मानसिक
औ भाव ऐसे
नीम
गमलों में सिमटकर रह गई है
भित्तियों की
इन दरारों के अलावा
ठौर पीपल को
कहाँ अब रह गई है
बरगदों के बोनसाई
हैं विवश से
धूप में
हर देह अब तपने लगी है
व्योम तो माना
सदा ही है अपरिमित
खिड़कियों के सींखचे
अनजान लेकिन
है धरा-नभ के मिलन का
दृश्य अनुपम
चौखटों को कब हुआ
आभास लेकिन
ओस से ही
प्यास को अपनी बुझाने
यह लता
मुंडेर पर चढ़ने लगी है
3. अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
शब्द हुए हैं खण्ड-खण्ड सब
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म तो रहा अछूता
द्वार-बंद है ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा है
छूछा होता कलश नेह का
मन में आन बसा है पतझड़
नहीं बसंती दौर नया
रेह जमे से मंतव्यों पर
तो, बस बबूल ही उगते हैं
विकृत रूप धरे ये अक्षर
अब शूल सरीखे चुभते हैं
संवेदन के इस निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
– बृजेश नीरज