नवगीत
नवगीत-
देखते ही देखते
नया वर्ष आया
फिसल गई पारे-सी
एक और शाम
छोड़कर उदासी
सब सूरज के नाम
खुद में ही डूब गया
खुद का ही साया
खिसक गया चुपके से
उम्र का पड़ाव
समगा कर चेहरे को
संशय बिखराव
पीतल की आज हुई
कंचन सी काया
बदल रहा गिरगिट-सा
रोज मूल्य बोध
अपनी ही स्थिति का
गहन आत्म शोध
आर्थिक विषमता की
गहराई छाया
देखते ही देखते
नया वर्ष आया
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नवगीत-
अब अँधेरी
घाटियों के बीच कोई
बंधु मेरे
रोशनी का पुल बनाओ
कांच के बहुमंजिला
घर से तो साथी
एक मिट्टी का
घरोंदा ही बहुत है
भूख से संघर्ष
करने को तो साथी
एक रोटी का
सहारा ही बहुत है
इसलिए अब
कागजों पर पुल
बनाने से तो अच्छा
हाथ भर
ऊँचाइयों को कम कराओ
बहुत सालों से नहीं
हम मुस्कुराये
खांसते संदर्भ से ही
दिन बिताये
अब दुखों के कर्ज से
मुक्ति दिलाने
सुख हथेली पर
समय के तुम उगाओ
धुंध के वातावरण में
रह चुके हम
दर्द दुनिया का
सभी कुछ
सह चुके हम
अब कंटीली झाड़ियों को
काटकर तुम
नये हिंदुस्तान का
नक्शा बनाओ
अब अँधेरी
घाटियों के बीच कोई
बंधु मेरे
रोशनी का पुल बनाओ
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नवगीत-
धीरे-धीरे
दिन चिकट गया बालों-सा
सूर्यमुखी चेहरे पर दिन के
स्याही आ छितरी
सारी धरी रह गई उसकी
आजादी तफरी
ऊब उदासी को समेटकर
कालापन भर गया शहर में
कोयले की टालों-सा
चीखों की बिरादरी
घर के अन्दर जा दुबकी
चुप्पी से फिर बात करे
कैसे कोई मन की
सख्त हुए जाते पहरे में
सन्नाटा बुन रहा अँधेरा
मकड़ी के जालों-सा
धारे-धीरे
दिन चिकट गया बालों सा
– रवि खण्डेलवाल