गीत-गंगा
नवगीत- देख रहा हूँ
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
धीरे-धीरे
सौ हिस्सों में
बंटते देख रहा हूँ।
तोड़ पुलों को
बना लिए हैं
हमने बेढ़ब टीले।
देख रहा हूँ
संस्कृति के
नयन हुए हैं गीले।
नई सदी को
परम्परा से
कटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
में अपने को
घटते देख रहा हूँ।
अधुनातन
शैली से पूछें,
क्या खोया क्या पाया।
कठ पुतली
से नाच रहे हम
नचा रही है छाया।
घर घर में ज्वाला
मुखियों को
फटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
तन-मन सब कुछ
हुआ विदेशी
फिर भी शोक नहीं है।
बोली वाणी
सोच नदारद
अपना लोक नहीं है।
कृत्रिम शोध से
शुद्ध बोध को
हटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
मेरा मैं टकरा
टकरा कर
घाट-घाट पर टूटा।
हर कंकर में
शंकर वाला
चिंतन पीछे छूटा।
पूरब को
पश्चिम के मंतर
रटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
*****************
नवगीत- तीर वाले वट
काश! हम होते नदी के
तीर वाले वट।
हम निरंतर भूमिका
मिलने-मिलाने की रचाते।
पांखियों के दल उतर कर
नीड़ डालों पर सजाते।
चहचहाहट सुन हृदय का
छलक जाता घट।
नयन अपने सदा नीरा
से मिला हँस बोल लेते।
हम लहर का परस पाकर
खिलखिलाते डोल लेते।
मंद मृदु मुस्कान
बिखराते नदी के तट।
साँझ घिरती सूर्य ढलता
थके पांखी लौट आते।
पात दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते।
झुरमुटों से झांकते हम
चाँदनी के पट।
देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते।
जिंदगी होती तनिक-सी
किन्तु कद में बड़े होते।
सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट।।
*****************
नवगीत- शहद हुए एक बूँद हम
शहद हुए एक बूंद हम
हित साधन
सिद्ध मक्खियाँ
आसपास घूमने लगीं।
परजीवी चतुर
चीटियाँ
मुख अपना
चूमने लगीं।
दर्द नहीं हो पाया कम।
शहद हुए एक बूंद हम।।
मतलब के मीत
सब हमें
ईश्वर-सा पूजते रहे।
कानों में शब्द
और स्वर
श्लाघा के कूजते रहे।
मुस्काती आंख हुई नम।
शहद हुए एक बूंद हम।।
हमने सब
जानबूझ कर
बांटा है सिर्फ प्यार को।
बाती-से दीप
में जले
मेटा है अंधकार को।
सूरज-सा पीते है तम।
शहद हुए एक बूंद हम।।
*****************
नवगीत- छले गए
हम पांसे हैं
शकुनि चाल के
मन मर्ज़ी से
चले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
छले गए हम
कभी शब्द से
कभी शब्द की सत्ता से।
विज्ञापन से
कभी नियति से
और कभी गुणवत्ता से।
कभी देव के
कभी दनुज के
पाँव तले हम
दले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
नागनाथ के
पुचकारे हम
सांपनाथ के डसे हुए।
नख से शिख तक
बाज़ारों की
बाहों में हम कसे हुए।
क्रूर समय की
गरम कड़ाही में
निस दिन हम
तले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
हम सब के सब
भरमाये हैं
और ठगे हैं अपनों के।
जाने कब तक
महल ढहेंगे
भोले भाले सपनो के।
सख्त हथेली
पर सत्ता की
रगड़ रगड़ कर
मले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
*****************
नवगीत- दीप जलता रहे
नेह के
ताप से
तम पिघलता रहे।
दीप जलता रहे।
शीश पर
सिंधुजा का
वरद हस्त हो।
आसुरी
शक्ति का
हौसला पस्त हो।
लाभ-शुभ की
घरों में
बहुलता रहे।
दीप जलता रहे।
दृष्टि में
ज्ञान-विज्ञान
का वास हो।
नैन में
प्रीत का दर्श
उल्लास हो।
चक्र-समृद्धि का
नित्य
चलता रहे।
दीप जलता रहे।
धान्य-धन,
सम्पदा
नित्य बढ़ती रहे।
बेल यश
की सदा
उर्ध्व चढ़ती रहे।
हर्ष से
बल्लियों दिल
उछलता रहे।
दीप जलता रहे।
हर कुटी
के लिए
एक संदीप हो।
प्रज्ज्वलित
प्रेम से
प्रेम का दीप हो।
तोष,
नीरोगता की
प्रबलता रहे।
दीप जलता रहे।
– मनोज जैन मधुर