गीत-गंगा
नवगीत- किसने तुझसे माँगें हैं सुख
किसने तुझसे माँगे हैं सुख-
महल अटारी के
महज भूख ने रोटी माँगी
ढँकने को कपड़ा
क्यों ये प्रश्न पसारे झोली
है लाचार खड़ा
हमने तो सुख की नींदें
चाहीं मेहनतकश की,
किसने तुझसे माँगे सपने
कार सवारी के
दे हाथों को काम पसीने को
श्रम का पैसा
हक़ माँगा है ज़ुल्म बता तो
कौन किया ऐसा
सुख देना तो राजा का है-
धर्म नया क्या है,
मगर यहाँ तो चिथड़े भी
लुट गये भिखारी के
ढेर बोझ लादे कंधों पर
सबके हाथ बँधे
चापलूसियाँ कर धोबी को
लतिया रहे गधे
लुटे ख़ज़ाने चोर खा गये
भूखों का पैसा
झूठमूठ भर दिये सभी
खाते सरकारी के
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नवगीत- हम चितेरे हैं
हम चितेरे हैं हमें तो,
रंग भरने हैं
ख़ुशबुओं का रंग सुर्ख़ीला
पलाशों-सा
रंग पीला है थकी टूटी
हताशों का
कुछ दु:खों के तो अभी
चेहरे सँवरने हैं
ज़िन्दगी की हर ख़ुशी में
चाँदनी का रंग
रात काली कब तलक आख़िर
करेगी तंग
भोर के रथ पर, सुनहरी
रंग करने हैं
मन धवल-सी झील फैलीं
हों कमल पाँखें
पूछ मत, किस रंग में होंगी
मेरी आँखें
आँख तो नमकीन जल के
सिर्फ़ झरने हैं
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नवगीत- जब अधिक दुख ने सताया
जब अधिक दु:ख ने सताया
रो लिए
भीड़ से बचते रहे
धँसते रहे
आग ग़म की लील कर
हँसते रहे
और ज़्यादा थक गये तो
सो लिए
मुख्य पृष्ठों की ख़बर से
कट गये
ज़ोर से मसले गये तो
फट गये
आज केवल हाशियों के
हो लिए
हम रबड़ से दो तरफ़
खींचे गये
या ग़ुब्बारे की तरह
भींचे गये
कब तलक बच पायेंगे
अब बोलिए
– कृष्ण भारतीय