गीत-गंगा
नवगीत- एक आधुनिक विषमताओं का गान
नींद में
बीते हुए दिन
रात में जागे हुए
उल्लुओं की बात है
वे किस तरह आगे हुए
एक सूरज
की किरण वो
दूर से चमकी बहुत
बादलों ने ओढ़ ली हैं
चादरें तम की बहुत
हम क्षितिज को हेरते हैं
रोज ही भागे हुए
बात थी
धन आएगा तो
धर्म भी आ जाएगा
धर्म के आने से जग में
सुख मनुज पा जाएगा
सुख की कथरी में कई
पैबंद हैं तागे हुए
मोल है
रिश्तों का कितना
जब अनैतिक कर्म है
बात है सीधी तरह की
चोट खाया मर्म है
राखियों के बंधनों के
कीमती धागे हुए
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नवगीत- पैर खींचा जा रहा है भीम का
फिर बनी
लौकी
करेला नीम का
एक टुकडा
गिर गया है बीम का
संखिये अब
कह रहे
अमृत कथा
सुन रहे हैं
भेड़िये आकर व्यथा
पैर खींचा
जा रहा है भीम का
दूध की
नदियाँ
अभी भी बह रहीं
वह शिवालय में
जरा सा गह रही
दूध अब
मिलता नहीं है क्रीम का
रूक्ष है
घर्षण
बड़ा है काम का
यश बढ़ा है
आदमी के नाम का
कौन फिर
जामा फटा है थीम का
– अशोक शर्मा कटेठिया