कविता-कानन
नदी-समुंदर
मैं नदी से कब समुंदर हो गई पता ही नहीं चला!
अपनी लहरों को उफ़नते देखती हूँ
नहीं समझा पाती उन्हें कि किनारा बस पल भर का साथी है
उनकी बार-बार की कोशिश,
बच्चों की-सी ज़िद,
यौवन की गरज
सब देखती हूँ
नहीं समझा पाती कि यही नियति है।
लहरें बहुत कुछ कहती हैं,
अथक दस्तक देती रहती हैं
पर क्या दस्तक किनारे तक पहुँचती है?
पहुँचती तो है
पर प्रश्न यह है-
क्या किनारा उस दस्तक को सुनता है?
मुझे नदी ही रहना है
नदी जो हमेशा आगे बढ़ती जाती है,
जिसे किनारों से प्यार नहीं होता।
वह किनारों से अपनी दूरी की गरिमा को
बनाए रखना चाहती है
अच्छा है, या तो गरिमा बनी रहेगी
या जो गरज अब तक लहरों से सुनी है
वह अब किनारों से सुनाई देगी।
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सपने सच भी होते हैं
सपने सच भी होते हैं
एक सपना, बीहड़ में गुलाब-सा
न जाने कैसे दो कोंपलें पा गया
ज़िद की मिट्टी,
आकांक्षा की किरणें,
कल्पना की नमी,
बस कोंपलें निकल ही गईंI
कैसे भूला वह बीहड़ के घने अंधकार को?
निराशा की घुटन को,
कहाँ छोड़ा उसने कुचले जाने के डर को?
अपने काँटों को अपना बल बनाकर,
कोंपलों से बढ़कर, सच की सुगंध बन गयाI
सच है…..सपनों को सच करना हो
तो कमज़ोरी को शक्ति बनाना है,
सफलता को साँसों में बसाना है
जीना है तो बस आगे ही बढ़ना है
डरना, घुटना, रुकना…..मरने से क्या कम है!
– डॉ. कान्ता रानी