गीत-गंगा
नदी की धार तो देखो
पुलों को
बाँधने वालो!
नदी की धार तो देखो
दिखाई
अब नहीं देती
कहीं जलधार की कल-कल
बहुत
रोई पटक कर
पत्थरों पर सिर यहाँ हलचल
दिशा
बदले बहावों पर
समय की मार तो देखो
पुलों को
बाँधने वालो!
नदी की धार तो देखो
हमारी
आँख निर्वसना
नदी की देह पर अटकी
हमारे
आचरण की नाव
फिर मँझधार में भटकी
अरे!
माँझी ज़रा
टूटी हुई पतवार तो देखो
पुलों को
बाँधने वालो!
नदी की धार तो देखो
हवा
की वंचनाएँ
मेघ को दिन-रात भटकाएँ
अधूरी
हैं मरुस्थल
की दिशा में नीर यात्राएँ
हमारी
प्यास कितनी
हो गई लाचार तो देखो
पुलों को
बाँधने वालो!
नदी की धार तो देखो
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यहाँ मत देवता होना
व्यर्थ
है रोना
यहाँ मत देवता होना
कुछ नहीं
बस पत्थरों की
देह पाओगे
युद्ध में
फिर दानवों से
हार जाओगे
देवता
होना
स्वयं अस्तित्व का खोना
देह के
हर व्याकरण
में दोष निकलेंगे
कपट-क्षण
के क्या कभी
सन्दर्भ बदलेंगे
पाप
है ढोना
किसी का शिला बन सोना
देवता
जीवन-मरण
से कब हुए परिचित
बस
भुजाओं में
किए अमृत-कलश संचित
कल्पतरु
बोना
सुरक्षित ढूँढना कोना
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मान जा मन
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन
बादलों
को कब
भला पी पाएगा
एक
चातक आग
में जल जाएगा
दूर
तक वन
और ढोता
धूप फिर भी तन
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन
मानते
उस पार
तेरी हीर है
यह
नदी जादू
भरी जंजीर है
तोड़
दे प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन
मर्मभेदी
यातना में
रोज मरना
स्वर्णमृग
का मत कभी
आखेट करना
मौन क्रन्दन
साथ होंगे बस
विरह के क्षण
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन
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मौलिक कथा के सृजन के लिए
एक
मौलिक कथा के
सृजन के लिए
कुछ अलग ही धरो
लीक से अब चरण
रूढियों
का न इतिहास लेकर चलो
कुछ नई
सोच के उत्तरों में ढलो
भूमि को
उर्वरक, धूप, पानी मिले
हो सफल
बीज का
संतुलित अंकुरण
कुछ अलग ही धरो
लीक से अब चरण
अर्थ जानो
यहाँ गूढ़ अस्तित्व का
शेष रहता
सहज सार कृतित्व का
सूर्य की
हर किरण
बन्दिनी मेघ की
खींच लो
देह से धुँध का आवरण
कुछ अलग ही धरो
लीक से अब चरण
प्रश्न
नेतृत्व का
जब उपस्थित हुआ
तीर संधान
करने को किसने छुआ
देखकर
काफिला
एक नायक बिना
कब बदलता
यहाँ भीड़ का आचरण
कुछ अलग ही धरो
लीक से अब चरण
– रमेश गौतम