कविता-कानन
धुआं
जब भी देखा पिता को
बस परेशान ही देखा
देखा अपने अधगंजे सिर पर हाथ फेरते
और बीड़ी के लम्बे-लम्बे कस लगाते
खूब धुआं छोड़ते हुए ही
धुआं हर बार ही ज़हरीला नहीं होता
पूछो इसकी सच्चाई
खूब घने अंधेरे जंगल
या फिर
किसी अनजान टापू में फंसे लोगों से
उस अंधविश्वासी बीमार ग्रामीण से पूछो
धुएं की पवित्रता
जो लेकर आया है धूणी
किसी देवता के गूर से
पिता सदा धुएं से ही घिरे रहे
अपने अपनों के
फेफड़े तक उठती रही इसकी टीस
और पिता नकली-से मुस्कुराकर
घुटते रहे अंदर ही अंदर
बीड़ी का यह धुआं शायद
सच्चा साथी है पिता का
उनके हर ग़म का गवाह
लेकिन डरने लगा है परिवार
बे-खौफ से अपने घर में घुसे
इस धुएं से अब
पिता की खांसी
अब पूरी पृथ्वी को हिला रही है
और हम सब
पृथ्वी को संभालने की
पूरी कोशिश में जुटेे हैं।
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कुफर
लौट आया है आज फिर से
गाँव के बीच जीवन
बहुत अरसे बाद
आज कविता गाएगी
अपने शब्दों की मिठास
फटी ज़मीन जोड़ लेगी अब
टूटे हुए रिश्ते फिर से
आज दादा देख रहे हैं
उस खाली टुकड़े को भरते हुए
लौट आई है जैसे उनकी
आॅंखों की डूबती रोशनी
पूरे गाँव का चेहरा खिल गया है
खुश हैं सब कुफर* के भरने पर
उदासी लौटी है सिर्फ रघु के चेहरे पर ही
घूर रहा है वह उसके इंच दर इंच फैलाव को
डूबते अपने अतिक्रमण को शनैः शनैः
लौटने लगे हैं वर्षों पहले गए पक्षी
पानी का हर जीव
कुफर में अब शोर है
टर-टर, छप-छप का
इस बार खूब होंगे धान
और धान झाफते वक्त
अनायास ही लौट आएगी
अपने बैलों की स्मृतियां
वह मुश्किल दौर
और भी बहुत कुछ……!
छोड़ो कुछ देर के लिए यह सब बातें यार
सोचो सिर्फ इतना कि
अब मिलेगी हर सुबह
अपने चावलों की स्वादिष्ट पीछ
लौट आएगा साग का सही स्वाद
अपने चावल के पाच से
इस बार पक्षी
खूब चक्कर लगाएंगे कुफर के आस-पास
भरपूर भोजन देंगे वे अपने बच्चों को
कुफर भर गई है बारिश के मीठे जल से
गाँव में जीवन अब गाने लगा है
मीठे-मीठे लोकगीत।
कुफर= गांव का तालाब
झाफते= झाड़ना
पीछ= चावल पकने के बाद निकलने वाला पानी
पाच= साग को पकाते समय साग में डालने वाले चावल
– पवन चौहान