कविता-कानन
धरती
हरी-भरी, फलती-फूलती
गर्भिणी धरती की
उर्वर कोख़ उजाड़कर
बंजर नींव में
रोप रहे हम
भावी पीढ़ियों के लिए
रेतीला भविष्य।
नभ से कुछ अंगुल कम
उन्नत छातियों से
बर्फीले आवरण
उतारकर
लज्जित, उदास शिखरों
को फोड़कर बुन रहे हैं
अकाट्य कवच,
लोहे के गगनचुंबी स्वप्न।
अठखेलियाँ करती,
किलकती, गुनगुनाती
पवित्र धाराओं में
धोकर, बहाकर
अपनी कलुषिता
हम निष्कलुष हुए
गंदगी के बोझ से थकी
क्षीण, जर्जर,
मरणासन्न नदियों की
देह के ऊपर
मंत्र फूँककर
जिलाने का ढोंग!
क्या लौटा पायेंगी
जीवन का अमृत?
बरसों की
कठिन तपस्या से
धरती को प्राप्त
अनमोल उपहारों का
निर्दयता से प्रयोग करते हैं
अपनी सुविधानुसार,
दूहते…!
कलपती, सिसकती
दिन-प्रतिदिन
खोखली होती
धरती
अपने गर्भ में ही
मार डाले गये भ्रूणों के
अबोले शाप की अग्नि में
झुलसने से
कब तक बचा पायेगी
मनुष्य का अस्तित्व…?
– श्वेता सिन्हा